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नरक की आयु को चाहने वाले होते हैं उनके उक्त प्रकार के ही लक्षण अथवा कार्य होते हैं। तात्पर्य यह है कि वे सदैव हिंसा, झूठ, चोरी और लूट-मार आदि नीच कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं एवं सत्य और न्याय-मार्ग का विनाश और असत्यमार्ग का अनुसरण करना ही उनका मुख्य कार्य होता है। दूसरों से दगा करना, उनके धन को हरना और येन केन उपायेन उनको लूटने का प्रयत्न करना इत्यादि के आचरण को अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझते हैं। इसलिए जब कभी किसी आत्मा के इस प्रकार के दुराचारमय कर्म हों तो समझ लेना चाहिए कि यह जीव केवल दुर्गति का ही मेहमान बन रहा है, क्योंकि स्वर्ग या नरक की गति स्वयं तो किसी को आमंत्रित नहीं करती, किन्तु यह जीव जिस गति के योग्य शुभ अथवा अशुभ कर्मों का आचरण करता है उसी गति की वह आयु बांध लेता है और तदनुसार ही उसे स्वर्ग अथवा नरक गति का पूर्ण आतिथ्य प्राप्त होता है। अतः सिद्ध हुआ कि जो जीव अपनी अज्ञानता से उक्त प्रकार के जघन्यं काम करते हैं, उन्हें अवश्य ही नरक में जाना होगा, अथवा यों कहिए कि नरक में जाने वाले जीव ही इस प्रकार के अतिनिन्दनीय कर्म करते हैं।
यहां पर 'अध्वन्' शब्द के दो अर्थ हैं—एक मार्ग और दूसरा धर्म। तब इसका अर्थ हुआ—मार्ग में लूटने वाला व धर्म का विध्वंस करने वाला। अब फिर इसी विषय का पुनः प्रतिपादन करते हैं
इत्थीक्सियगिद्धे य, महारंभ-परिग्गहे । . भुंजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे ॥ ६ ॥
स्त्री-विषय-गृद्धश्च, महारंभ-परिग्रहः ।
भुजानः सुरां मांसं परिवृढ़ः परंदमः ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः—इत्थीविसयगिद्धे स्त्री के विषय में मूर्च्छित—आसक्त, महारंभपरिग्गहे महान आरम्भ और परिग्रह वाला, य—और, सुरं—सुरा—मंसं—और मांस को, भुंजमाणे खाता हुआ, परिवूढे समर्थ, परंदमे दूसरों का दमन करने वाला।
- मूलार्थ इस प्रकार का अज्ञानी जीव स्त्रियों में आसक्त, महान् आरम्भ और परिग्रह में आसक्त तथा मदिरा-मांस का सेवन करने वाला, बलवान् होकर दूसरों का दमन करने वाला होता है।
टीका—इस गाथा में भी नरक के योग्य प्राणियों के आचरणों का वर्णन किया गया है। नरक—गति में जाने वाले जीव स्त्री-भोग-सम्बन्धी विषय-विकारों में अधिक मूर्छित होते हैं। उनके मन में काम-भोगादि विषयों की बहुत तीव्र अभिलाषा रहती है। फिर उनकी हिंसा आदि दुष्कर्मों में अधिक प्रवृत्ति रहती है और वे धन आदि के संचय करने में अधिक व्यग्र रहते हैं। इसके अतिरिक्त उनका भोजन भी सात्विक नहीं होता। वे मद्य और मांस का बिना संकोच व्यवहार करते हैं तथा उनका शारीरिक बल भी दूसरों का दमन करने के लिए ही होता है।
यहां पर इतना और समझ लेना चाहिए कि महारम्भ और महापरिग्रह ये दोनों ही नरक के हेतु
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 253 / एलयं सत्तमं अज्झयणं