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________________ प्रकार, , बाले – अज्ञानी, अहम्मिट्ठे –—–— अधर्म करने वाला, नरयाउयं — नरकायु को, ईहई — चाहता है । मूलार्थ — जिस प्रकार प्राघुणक अर्थात् मेहमान के लिए रखा हुआ बकरा मेहमान को चाहता है, उसी प्रकार अधर्म करने वाला अज्ञानी जीव नरक आयु को चाहता है। टीका — इस गाथा में अज्ञानी जीव को बकरे से उपमित किया गया है, अर्थात् जिस प्रकार पाहुने के लिए पाला गया वह बकरा पाहुने को चाहता है वैसे ही विवेक-शून्य अधर्मी पुरुष नरकायु को चाहता है। यहां पर ‘ईहई' क्रियापद से 'चाहता ' है अर्थ की संगति इस प्रकार से हो सकती है। मनुष्य जिस प्रकार के कर्म में प्रवृत्त होता है, उसी के अनुरूप उसकी इच्छा बन जाती है। जैसे किसी राजकीय पाठशाला में पढ़ने वाले अनेक विद्यार्थी अपने - अपने भाव के अनुसार अमुक-अमुक पद के उपासक बनते हैं—कोई विद्यार्थी तो वकील बनना चाहता है, कोई जज बनने की इच्छा रखता है और कोई डॉक्टर या मास्टर बनने की धुन में है, उसी प्रकार जो जीव जिस योनि के कर्म करते हैं, वे उपचार से उसी योनि के चाहने वाले कहे जाते हैं । इसलिए मेहमान के परितोष के लिए पलने वाले बकरे और अधर्म करने वाले मूर्ख जीव की क्रमशः मेहमान और नरकायु को चाहने की जो धारणा है वह उपचार नय से उपयुक्त एवं युक्ति संगत है। जिस प्रकार पाहुने को देखकर वह बकरा दुखी होता है, उसी प्रकार अधर्म का आचरण करने वाला मूर्ख व्यक्ति मृत्यु के निकट आने पर दुखी होता है। इस दृष्टि से इन दोनों की बहुत ही समानता है । अब अधर्म का आचरण करने वालों के लक्षण कहते हैं - हिंसे बाले मुसाबाई, अद्धामि विलोव । अन्नदत्तहरे तेणे, माई कं नु हरे सढे ॥ ५ ॥ हिंस्रो बालो मृषावादी, अध्वनि विलोपकः । अन्यादत्तहरः स्तेनः, मायी कन्नु हरः शठः ॥ ५॥ पदार्थान्वयः —–— हिंसे—–— हिंसा करने वाला, बाले – अज्ञानी, मुसावाई — मृषावादी —— झूठ बोलने वाला, अद्धाणंमि –—–— मार्ग में, विलोव — लूटने वाला, अन्नदत्तहरे - बिना दिए वस्तु के उठाने वाला, तेणे― चोर, माई—छल करने वाला, कं– किसको, नु–वितर्क में, हरे-हरूं ऐसा विचार करने वाला, सढे ठ— धूर्त | मूलार्थ — हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, मार्ग में लूटने वाला, बिना दिए किसी की वस्तु को उठाने वाला, चोरी करने वाला, छल-कपट करने वाला और 'किस की चोरी करूं' ऐसा विचार रखने वाला तथा धूर्तता करने वाला ऐसा मूर्ख व्यक्ति नरक की आयु को बांधने वाला होता है, • अर्थात् अज्ञानी — मूर्ख व्यक्ति के इस प्रकार जघन्य आचरण उसे नरक में ले जाते हैं । टीका - इस गाथा में पूर्वोक्त विषय का ही कुछ विस्तार - सहित वर्णन किया गया है। जो जीव श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 252 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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