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________________ “ अप्पक्खरं महत्थं, महक्खरऽप्पत्थं दोसुवि महत्थं । दोसुवि अप्पं च तहा, भणियं सत्थं च उ विगप्पं” ॥ १ ॥१ इस प्राकृत गाथा का तात्पर्य यह है कि सूत्र चार प्रकार के कहे हैं - ( १ ) अल्प अक्षर और महान अर्थ, अर्थात् जिनके अक्षर थोड़े हों और अर्थ अधिक हों, (२) प्रभूत अक्षर और अल्प अर्थ वाले, अर्थात् जिनके अक्षर अधिक हों और अर्थ अल्प हो, (३) अधिक अक्षर और अधिक अर्थ वाले तथा (४) अल्प अक्षर और अल्प अर्थ वाले । इस प्रकार सूत्र के चार विकल्पों—भेदों का शास्त्र में वर्णन किया गया है। ऊपर की इस गाथा में सूत्र नाम से विख्यात आगम ग्रन्थों के चार प्रकार के भेद बताने के व्याज से सूत्र के भिन्न-भिन्न चार लक्षण बताए गए हैं, ताकि सूत्र नाम से व्यवहत होने वाले आगम ग्रन्थों में ऊपर दिए गए सूत्र लक्षणों का समन्वय हो सके। सारांश यह है कि उपरोक्त भंगों में सारे ही सूत्रागमों का समावेश हो जाता है, परन्तु इतना ध्यान अवश्य रहना चाहिए कि उपरोक्त चार भंगों में प्रथम के तीन तो लोकोत्तर अर्थात् आगम शास्त्र के लिए हैं और चतुर्थ भंग का लौकिक शास्त्र से सम्बन्ध है । जैसे कि नियुक्ति की निम्नलिखित गाथा से व्यक्त होता है— “सामायारी ओहे, नायज्झयणा य दिट्ठीवाओ य | लोइंअ कप्पासाई अनुकम्माकारगा चउरो” ॥ २ ॥२ इस गाथा में और पहली गाथा में वर्णन किए गए चार प्रकार के सूत्रों के उदाहरण दिखाए गए हैं। यथा—(१) ओघसामाचारी की गणना प्रथम भंग में की जाती है, (२) ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र का प्रथम अध्याय द्वितीयभंग में गिना जाता है (३) तीसरे भंग में दृष्टिवाद की गणना है । और लौकिक १. छाया— अल्पाक्षरं महार्थं महाक्षराल्पार्थं द्वयोरपि महार्थम् | द्वयोरप्यल्पं च तथा, भणितं शास्त्रं चतुर्विकल्पम् ॥ व्याख्या— अत्र चतुर्भङ्गिका, अल्पान्यक्षराणि यस्मिन् तदल्पाक्षरं — स्तोकाक्षरमित्यर्थः । ' महत्थं इति महानर्थो यस्मिन् तन्महार्थं-प्रभूतार्थमित्यर्थः। तत्रैकं शास्त्रं अल्पाक्षरं भवति महार्थञ्च प्रथमो भागः । अथान्यत् किं भूतं भवति ? “महक्खरमप्पत्थं’” महाक्षरं प्रभूताक्षरमिति हृदयम् । अल्पार्थं स्वल्पार्थमिति हृदयम्, द्वितीयो भागः । तथान्यत् किं भूतं भवति ? “दोसुवि महत्थं" द्वयोरपीति अक्षरार्थयोः, श्रुतत्वादक्षरार्थोभयं परिगृह्यते । एतदुक्तं भवति – प्रभूताक्षरं प्रभूतार्थञ्च, तृतीयो भागः । तथान्यत् किं भूतं भवति " दोसुवि अप्पं च तहा" द्वयोरप्यल्पमक्षरार्थयोः, एतदुक्तं भवति अल्पाक्षरं अल्पार्थञ्चेति। तथेति तेनागमोक्त प्रकारेण भणितम्" उक्तं शास्त्रं चतुर्विकल्पं — चतुर्विधमित्यर्थः । २. व्याख्या –— ओघसामायारी प्रथमभंगके उदाहरणं भवति । पूर्वापरनिपातादेवमुपन्यासः कृतः । ज्ञाताध्ययनानि षष्ठांगे प्रथमश्रुतस्कन्धे तेषु कथानकान्युच्यन्ते । ततः प्रभूताक्षरत्वमल्पार्थञ्चेति, द्वितीयभङ्क्के ज्ञाताध्ययनान्युदाहरणं 'च' शब्दादन्यच्च यदस्यां कोटयै व्यवस्थितम् । दृष्टिवादश्च तृतीयभङ्गके उदाहरणं यतोऽसौ प्रभूताक्षरः प्रभूतार्थश्च, 'च', शब्दादेकदेशोऽपि । चतुर्भङ्गोदाहरणप्रतिपादनार्थमाह – “लोइय कप्पासाई” इति लौकिकं चतुर्भङ्गे उदाहरणम् । किं भूतम् ? कार्पासादि, आदिशब्दात् शिवचन्द्रादिग्रहाः । “अनुक्कमत्ति" अनुक्रमादिति । अनुक्रमेणैव — परिपाट्या, तृतीयार्थे पंचमी । 'कारकाणि कुर्वन्तीति कारकाणि – उदाहरणान्युच्यन्ते चत्वारीति यथासंख्येनैवेति । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 25 / प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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