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एक वैश्य के चार पुत्र थे। उन चारों में एक जन्मान्ध-जन्म का अन्धा था। जब वे चारों युवावस्था को प्राप्त हुए तो उस वैश्य ने विचार किया कि मेरे तीन पुत्र तो अपनी योग्यता के अनुसार अपने-अपने काम-धन्धे में लग गए हैं, परन्तु यह चौथा पुत्र अन्धा होने से कुछ भी नहीं कर सकता। आगे चलकर कहीं ऐसा न हो कि इसके अन्य तीनों भ्राता और उनकी पत्नियां इसका तिरस्कार करने लग जाएं, अतः इसको भी किसी कार्य में नियुक्त कर देना चाहिए।
इस प्रकार विचार करने के अनन्तर उसने अपने विशाल भवन के दोनों खम्भों के साथ एक रस्सी बांध दी और अपने अन्धे पुत्र के हाथ में वह रस्सी पकड़ा कर बोला कि लो इस रस्सी के सहारे से तुम प्रतिदिन अपने घर के कचरे-कूड़े, आदि को सिर पर उठाकर घर से बाहर फेंक दिया करो।
वह अन्धा पुत्र विनीत था, इसलिए उसने अपने पूज्य पिता की आज्ञा को मान कर उसी प्रकार आचरण करना आरम्भ कर दिया, अर्थात् वह प्रतिदिन घर में एकत्रित हुए कूड़े-कचरे को सिर पर उठा कर खम्भे के साथ बंधी हुई उस रस्सी के सहारे से बाहर ले जाकर फेंक दिया करता।
उस विनीत एवं जन्मजात अन्धे पुत्र के उपरोक्त कार्य से घर के सभी लोग उसका आदर करने लगे और उसका जीवन शान्ति पूर्वक व्यतीत होने लगा। यह तो है द्रव्यानुसरण और भावानुसरण के लिए इसे यों समझिए—वैश्य के समान तो आचार्य हैं और जन्मान्ध पुत्र के तुल्य साधु हैं तथा रस्सी के समान ये सूत्ररूप आगम हैं एवं ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकार के कर्म, यह घर के भीतर एकत्रित हुआ कूड़ा है। तब जिस प्रकार वह जन्मान्ध बालक पिता के आदेश से खम्भों के साथ बंधी हुई रस्सी का सहारा लेकर घर में रहे हुए कूड़े को बाहर फैंकने में समर्थ हो गया, उसी प्रकार गुरुजनों के आदेश से सूत्रानुसार क्रियानुष्ठान में प्रवृत्त होने वाला साधु भी उक्त प्रकार के कर्म-मल को अपनी आत्मा से पृथक् करने में समर्थ हो जाता है। इसी का नाम भावानुसरण है। ___ वर्तमान काल में तो मुमुक्षु पुरुषों के लिए एकमात्र सूत्र ही अवलम्बन हैं। इनके अनुसार संयम-मार्ग में विचरने वाला साधु आत्मसंपृक्त कर्ममल को शीघ्र से शीघ्र दूर कर सकता है। इसलिए "अनुसरणात् सूत्रम्" यह सूत्र शब्द की निरुक्ति सर्वोत्तम प्रतीत होती है। , लक्षण
___ सूत्र रूप से ग्रन्थ रचना की प्रणाली अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होती हैं। प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में प्रायः इसी प्रणाली का अनुसरण देखने में आता है। इसी हेतु से प्राचीन जैनागम ग्रन्थ सूत्र के नाम से विख्यात हैं। इसलिए सूत्र के लक्षण का निर्देश करना भी यहां पर आवश्यक प्रतीत होता है। सामान्य रूप से तो सूत्र का लक्षण यही है कि जिसमें अक्षर अल्प हों और अर्थ महान् एवं अधिक हो। तात्पर्य यह है कि जो अक्षरों में स्वल्प होते हुए भी अर्थ में विस्तृत हो उसका नाम सूत्र है। परन्तु सूत्र के नाम से विख्यात होने वाले आगम ग्रन्थों को देखते हुए उनमें सर्वत्र उक्त लक्षण संघटित नहीं होता। इसलिए नियुक्ति में सूत्र के लक्षण को चार प्रकार से वर्णन किया गया है, जिससे कि उसका आगमों में समन्वय हो सके। यथा
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 24 / प्रस्तावना