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उसकी माता ने कहा कि 'पुत्र! तुम क्यों भयभीत हो रहे हो? क्या तुमको मैंने पहले नहीं कहा था कि ये सब चिन्ह इसके मरण के दिखाई दे रहे हैं। 'जो खाएंगे गटके, वे ही सहेंगे सटके' अर्थात् जिन्होंने अन्याय का खाना है उन्होंने ही भारी दुख उठाना है। हम तो सूखी घास खाते हैं और उसके बदले में दूध देते हैं तथा कृषि-सम्बन्धी कामों के सम्पादन में पूरी सहायता देते हैं। इसलिए हमें किसी का भय नहीं है। मृत्यु का भय तो उन्हीं को होता है जो अन्याय के द्रव्य से अपना पालन-पोषण करते हैं।"
इस दृष्टान्त से यह सिद्ध होता है कि जो लोग अधर्माचरण में प्रवृत्त होते हुए रसों में अधिक आसक्ति–अधिक लम्पटता रखते हैं, वे निस्सन्देह नरकादि गति की अशुभ आयु को बांधते हैं। .
अब मूलकार ही इस दृष्टान्त के अवशिष्ट भाग का उल्लेख करते हुए उस बकरे की आगे की दशा का वर्णन करते हैं
तओ से पुढे परिवूढे, जायमेए महोदरे । पीणिए विउले देहे, आएसं परिकंखए ॥ २ ॥
ततः स पुष्टः परिवृढः, जातमेदाः महोदरः ।
प्रीणितो विपुले देहे, आदेशं परिकांक्षति || २ || पदार्थान्वयः-तओ—तदनन्तर, से—वह—बकरा, पुढे-पुष्ट, परिवूढे समर्थ, जायमेएबढ़ी हुई मेद—चर्बी वाला, महोदरे—महान उदर वाला, पीणिए-तृप्त, विउले–विपुल, देहे—देह . होने पर, आएसं—आदेश को, परिकंखए—चाहता है। . .
मूलार्थ तदनन्तर अर्थात् भली-भांति पालन-पोषण होने के बाद उस बकरे का शरीर बड़ा पुष्ट और बलवान् हो गया, चर्बी का भी उसके शरीर में पर्याप्त संचय हो गया और उसका उदर भी बढ़ गया। इस प्रकार परितृप्त और विशालकाय होने पर वह मानों आदेश की आकांक्षा करने लगा, अर्थात् जिस मेहमान के लिए उसका पालन पोषण हो रहा था, मानो उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
टीका—बड़े प्रेम और सावधानी के साथ पालन-पोषण होने पर उस बकरे के शरीर की दिल दहलाने वाली जो अवस्था हो गई इस गाथा में उसका निरूपण किया गया है। उसका शरीर मांस आदि की वृद्धि से अत्यन्त पुष्ट हो गया तथा शरीर में रहने वाली दुर्बलता जाती रही, उसके शरीर में चर्बी की वृद्धि पर्याप्त रूप में उपलब्ध होने लगी। इसी कारण से उसका पेट भी खूब बढ़ गया तथा यथेष्ट आहार के मिलने से वह पूर्णरूप से तृप्त होने लगा। इस प्रकार उसके शरीर और अंग-प्रत्यंगों में यथेष्ट वृद्धि हो जाने पर विशालकाय यह बकरा उस मेहमान की आकांक्षा कर रहा था जिसके निमित्त उसकी इतनी सेवा हुई थी। यद्यपि उस बकरे की मरने की इच्छा नहीं है और न ही वह इस
कार की इच्छा करता है. तथापि अपने स्वामी के आदेशानसार जिस उद्देश्य से उसका जिस तरह से पालन-पोषण हो रहा है उसका अर्थ यही है कि वह उस मेहमान के रूप में मानो अपने काल की ही प्रतीक्षा कर रहा है। यह भाव गाथा में प्रयुक्त हुए लुप्त 'इव' शब्द से व्यक्त है, जो कि साक्षात् न
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 250 / एलयं सत्तमं अज्झयणं