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कि जैसे कोई अनार्य पुरुष किसी प्राघुणक अर्थात् मेहमान के लिए अपने घर में बकरे को पालता है, उसको खूब अच्छा खिलाता-पिलाता है, प्यार करता है और अपनी आंखों के सामने रखता है।
यहां पर इस गाथा में पोषण का दो बार उल्लेख आया है, जिसका तात्पर्य है विशेष रूप से पोषण करना तथा घर के आंगन में कहने से दृष्टि के सामने रखना और अत्यन्त स्नेह से पालन-पोषण करना अभिप्रेत है। यह समग्र दृष्टान्त इस प्रकार है
किसी ग्राम में किसी निर्दयी अनार्य पुरुष ने अपने एक चिर-परिचित प्रिय मित्र के लिए एक बकरे को लाकर पाला और खाना-दाना खिलाकर पुष्ट कर दिया। जिस प्रकार अपने पुत्र को अच्छे से अच्छा खाना खिलाया जाता है और बड़े लाड़-प्यार से उसको रखा जाता है उसी प्रकार उस बकरे का भी वह बड़ी अच्छी तरह से पालन-पोषण करता था। इसके अतिरिक्त उस घर में एक गाय भी रहा करती थी
और उस गाय के एक बछड़ा भी था। जब बछड़े ने उस बकरे के स्नेह-पूर्वक किए जाने वाले पालन-पोषण को देखा और पालन-पोषण से अत्यन्त पुष्ट हुए उसके शरीर को देखा तो वह बछड़ा अपने मन में बड़ी ही चिन्ता करने लगा और उस बकरे की अपेक्षा अपने ऊपर होने वाले अपमान जनक व्यवहार की ओर देखकर उसे बड़ा दुख हुआ। उसने कुछ समय विचार करने के बाद ईर्ष्या में भरकर अपनी माता का दूध पीना बन्द कर दिया और घास खाना भी छोड़ दिया। उसके इस व्यवहार को देखकर उसकी माता ने पूछा कि 'बेटा! तू बहुत दिनों से न तो दूध पीता है और न ही घास खाता है, किन्तु रात-दिन उदास सा होकर खड़ा रहता है, तुम्हारी इस उदासी का कारण क्या है ?
तब उस बछड़े ने अपनी माता से कहा कि 'मैं इस बकरे को देखकर बड़ा दुखी हो रहा हूं। देखो! इस बकरे का कितना अच्छा पालन-पोषण हो रहा है। घर का स्वामी इसे कितना प्यार करता है, इसलिए यह बड़ा ही पुण्यशाली है और मेरे को कोई पूछता तक नहीं, न कभी अच्छा घास ही खाने को मिलता है और न कभी अच्छा जल ही प्राप्त होता है, अतः मैं बड़ा मंदभागी हूं।'
यह सुनकर माता बोली कि 'बेटा! तू इसके अच्छे पालन-पोषण को देखकर दुखित न हो। इसके शरीर में पड़े हुएं भूषणों को देखकर ईर्ष्या मत कर। इसके साथ जो प्रेम किया जाता है उस पर भी मत भूल | मुझे इसके ये सारे चिन्ह ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे किसी शीघ्र मरने वाले प्राणी के होते हैं। जब किसी रोगी का रोग औषधियों के द्वारा शान्त करने लायक नहीं रहता, किन्तु असाध्य कोटि तक पहुंच जाता है तब वैद्य लोग उस रोगी के लिए यह आज्ञा कर देते हैं कि यह रोगी जो कुछ भी खाने को मांगे इसको वही खाने को देना चाहिए । सो अब इस बकरे के मृत्यु के दिन निकट आ रहे हैं, तुम स्वयं इस बात का अनुभव कर लेना और देख लेना कि इसकी क्या दशा होती है।'
कुछ दिनों के बाद उसका मित्र उसके घर में आया और उसने अपने मित्र के खान-पान सम्बन्धी सत्कार के निमित्त उस पाले हुए बकरे का वध करके उसके मांस से अपने मित्र को तृप्त किया। उस बकरे का इस प्रकार से वध हुआ देखकर वह बछड़ा भी जब अधिक भयभीत हुआ तब
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 249 / एलयं सत्तमं अज्झयणं