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प्रतिबन्ध-रहित होकर विहार करे तथा स्वयं प्रमाद का परित्याग करके प्रमादयुक्तों-गृहस्थों के घरों से विधि-पूर्वक निर्दोष आहार की गवेषणा करता हुआ भिक्षा ग्रहण करे। यद्यपि यहां पर केवल एषणा-समिति का ही उल्लेख किया गया है. तथापि इसको ईर्या-समिति और भाषा-समिति आदि का भी ज्ञापक समझ लेना चाहिए। एषणा-समिति से तात्पर्य है ४२ प्रकार के जो भिक्षा के दोष हैं उनको हटा कर भिक्षा ग्रहण करना। प्रमाद-रहित होकर विचरते हुए साधु के लिए प्रमादशील गृहस्थों के घरों से शुद्ध और निर्दोष आहार की गवेषणा करने का जो विधान शास्त्रकारों ने किया है उसका अभिप्राय यह है कि गृहस्थ लोग प्रायः प्रमादी होते हैं, उनके बार-बार के संसर्ग से साधु भी कहीं प्रमाद के वशीभूत न हो जाए। वह तो सदा अप्रमत्त रहकर अपने साधु-धर्मोचित आचार के अनुष्ठान में यथाशक्ति सतत यत्न करता रहे, ताकि उसके संयम में किसी प्रकार का दोष न लगने पाए, क्योंकि प्रमाद ही सारे दुखों की प्राप्ति का मूल हेतु है।
यद्यपि निद्रा, विकथा, मद्य, विषय और कषाय ये पांच प्रमाद के भेद बताए गए हैं, तथापि मुख्यतः प्रमाद का अर्थ है आचरणीय धर्म-कृत्यों को त्याग कर अधर्म-मूलक आचार का सेवन करना, जो सर्वथा त्याज्य है।
ऊपर सामान्य रूप से निर्ग्रन्थ और संयम का स्वरूप बताया गया है, अब निम्नलिखित गाथा में उसकी आदरणीयता का प्रतिपादन किया जाता है
एवं से उदाहु अणुत्तरंनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे। अरहा नायपुत्ते भयवं वेसालिए वियाहिए ॥ १८ ॥
त्ति बेमि || इति खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं समत्तं ॥ ६॥ एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञानी अनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः । अर्हन् ज्ञातपुत्रः भगवान् वैशालिको व्याख्यातः ॥ १८ ॥
इति ब्रवीमि || इति क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीयं षष्ठममध्ययनं संपूर्णम् ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः—एवं—इस प्रकार, से—वह, भयवं—भगवान ने, उदाहु-कहा है जो, अणुत्तरनाणी सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी हैं, अणुत्तरदंसी—प्रधानदर्शी हैं, अणुत्तर—प्रधान, नाणदंसणधरे—ज्ञान और दर्शन के धारण करने वाले हैं, अरहा—अरिहंत, नायपुत्ते ज्ञातपुत्र, वेसालिए–विस्तीर्ण यश वाले उन्होंने, वियाहिए—व्याख्या की है, ति बेमि—इस प्रकार मैं कहता हूं। ____मूलार्थ अनुत्तर अर्थत् सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी, अनुत्तरदर्शी एवं अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धारण करने वाले, विशेष यशस्वी ज्ञातपुत्र अरिहन्त भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा है, ऐसा मैं कहता हूं। टीका श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू! भगवान् ज्ञातपुत्र ने इस प्रकार
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 246 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं ।