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________________ टीका-इस गाथा में साधु को खाने वाले किसी अन्नादि पदार्थ को दूसरे दिन के लिए रखने का निषेध किया गया है, अर्थात् भिक्षा द्वारा लाए हुए अन्नादि पदार्थों को दूसरे दिन के लिए 'यह मैं कल को खा लूंगा,' इस अभिप्राय से रात्रि में संचित करके न रखे। इसलिए साधु को उतना ही आहार लाने की शास्त्रकारों ने आज्ञा दी है जितना कि वह अपने लिए पर्याप्त समझे। अधिक लाकर उसे अगले दिन के लिए रात्रि में सम्भाल कर रखने का सर्वथा निषेध है, अतः साधु किसी भी खाद्य पदार्थ का अंश-मात्र भी संग्रह न करे। संयमशील साधु की अवस्था तो एक पक्षी के समान होनी चाहिए जो कि इधर-उधर से प्राप्त किए अन्नादि के कणों का भक्षण करके उड़ जाता है और आगामी दिन के लिए अपने पास किसी भी खाद्य पदार्थ का संग्रह करके नहीं रखता। अभिप्राय यह कि निरपेक्ष होकर जैसे पक्षी विचरता है, उसी प्रकार साधु को संसार में विचरना चाहिए तथा रात्रि के समय जैसे पक्षी मात्र अपने परों को संभालकर किसी प्रकार की आशा को न रखता हुआ एक स्थान पर निश्चित होकर बैठ जाता है, उसी प्रकार साधु भी रात्रि में अपने सूखे भिक्षापात्रों को लेकर तथा फिर आहार करने की आशा को छोड़कर निरपेक्ष भाव से एकान्त स्थान में बैठ कर अपने संयम का पालन करे। अपनी आत्मा को धर्म-ध्यान में स्थापित करे और आहार आदि की चिन्ता में निमग्न न रह कर रात्रि व्यतीत करे। 'संनिधि' उसे कहते हैं जिसके द्वारा यह आत्मा नरक आदि जघन्य गतियों में अपने आपको ले जाती है, इसलिए साधु को चतुर्विध आहार में से किसी आहार का भी संग्रह करके रात्रि को रखना नहीं चाहिए। यहां पर इस बात का भी ध्यान रखना है कि उक्त गाथा में आए हुए 'पक्षी' के आगे लुप्त 'इव' शब्द का निर्देश है, जिसका 'अर्थ' पक्षी इव अर्थात् पक्षी की तरह किया जाता है। अब फिर इसी विषय का विवेचन करते हैं एसणासमिओ लज्जू गामे अणियओ चरे । अप्पमत्तो पमत्तेहिं पिण्डवायं गवेसए ॥ १७ ॥ एषणासमितो लज्जावान् ग्रामेऽनियतश्चरेत् । अप्रमत्तः प्रमत्तेभ्यः, पिण्डपातं गवेषयेत् || १७ ॥ ___ पदार्थान्वयः—एसणासमिओ-एषणा समिति से युक्त, लज्जू लज्जायुक्त, संयमशील, गामे—ग्राम में, अणियओ—अनियत, प्रतिबन्ध रहित होकर, चरे–विचरे, अप्पमत्तो—प्रमाद से रहित होकर, पमत्तेहिं—गृहस्थ लोगों से, पिंडवायं—आहारादि की, गवेसए—गवेषणा करे । .. मूलार्थ-संयमशील भिक्षु एषणा-समिति से युक्त होकर, अनियत रूप से अर्थात् प्रतिबन्ध-रहित होकर ग्रामादि में विचरे और प्रमाद-रहित होता हुआ गृहस्थ लोगों से आहार अर्थात् भिक्षा आदि की गवेषणा करे। टीका-शुद्ध संयम के पालने वाला भिक्षु एषणा-समिति से युक्त होकर ग्राम व नगरादि में _ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 245 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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