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पदार्थान्वयः– विगिंच — दूर कर, कम्मुणो— कर्म के, हेउं हेतु को, कालकंखी — समय विभ के अनुसार, परिव्वए – संयम - मार्ग में चले, पिंडस्स – अन्न की, पाणस्स – पानी की, मायं — मात्रा को जानकर, कडं - किया हुआ, लद्धूण- प्राप्त करके, भक्खर - भक्षण करे ।
मूलार्थ - हे शिष्य ! तूं कर्म के हेतुओं को दूर कर और संयम-शील साधु को चाहिए कि समय - विभाग के अनुसार ही अपने आचार का पालन करता हुआ विचरे तथा अन्न और जल की मात्रा अर्थात् परिमाण का विचार करके गृहस्थों ने अपने लिए जो भोजन तैयार किया है उसको प्राप्त करके भक्षण करे ।
टीका - इस गाथा में कर्म-बन्ध के हेतु मिथ्यात्व और कषाय आदि को दूर करने का जो उपदेश दिया गया है उसका प्रयोजन यह है कि इनके दूर किए बिना अप्रमत्त भाव से संयम का पालन नहीं हो सकता तथा संयम की शुद्धि के लिए मुनि को यह भी आवश्यक है कि वह अपने उपयोग में लाए जाने वाले अन्न और जल के परिमाण और प्रासुकता – निर्दोषता का भी पूरा ध्यान रखे । इसलिए वह सचित्त जल और आधाकर्मी आदि दोष युक्त आहार की सदा उपेक्षा करता हुआ गृहस्थ ने जो आहार अपने एवं अपने परिवार के खाने के लिए घर में तैयार किया है उसी में से अपनी साधु- वृत्ति के अनुसार कुछ प्राप्त करके भक्षण करे ।
सारांश यह कि इस प्रकार से जब साधु कर्मों के हेतुओं को दूर कर देगा और समय-विभाग के अनुसार संयम-मार्ग में चलेगा तथा संयम की निर्मलता के लिए निर्दोष आहार का ग्रहण करेगा तब फिर वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ हो जाएगा।
यहां पर वृत्तिकार ने 'विगिंच' के स्थान में 'विविच्च' (जिसका संस्कृत प्रतिरूप 'विविच्य' बनता है) पाठ मानकर व्याख्या की है, परन्तु बहुत सी प्रतियों में ऊपर दिया गया पाठ ही देखने में आता है, इसलिए वही पाठ रखकर उपर्युक्त व्याख्या की गई हैं।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए । पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्व ॥ १६
संनिधिं च न कुर्वीत, लेपमात्रया संयतः ।
पक्षी - पत्रं समादाय, निरपेक्षः परिव्रजेत् || १६ ||
पदार्थान्वयः–सन्निहिं च - और संचय, न कुव्वेज्जा — न करे, लेवमायाए - लेप - मात्र प्रमाण भी, संजए - संयत साधु, पक्खी पत्तं - पक्षी के पंखों की तरह पात्र को, समादाय — ग्रहण करके, निरवेक्खो - अपेक्षारहित होकर, परिव्वए - संयम मार्ग में विचरे और भिक्षाचरी के लिए जाए।
मूलार्थ - संयमशील साधु रात्रि में लेशमात्र भी अर्थात् पात्र के लेप - मात्र जितना भी अर्थात् अंश मात्र भी अन्नादि वस्तु अपने पास न रखे, किन्तु अपेक्षारहित अर्थात् आशा-रहित होकर भिक्षा पात्र को लेकर पक्षी की तरह संयम मार्ग में विचरे अथवा भिक्षा के लिए परिभ्रमण करे ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 244 / खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठ अज्झयणं