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बाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदाचिदपि ।
- पूर्वकर्मक्षयार्थम्, इमं देहं समुद्धरेत् ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः–बहिया–संसार से बाहर, उड्ढे-ऊंचे को, आदाय—ग्रहण करके, नावकंखेविषयादि की इच्छा न करे, कयाइ वि—कदाचित् भी, पुव्वकम्मक्खयट्ठाए—पूर्व कर्मों के क्षय करने के लिए, इमं—इस, देहं—देह को, समुद्धरे—धारण करे । ___ मूलार्थ- मोक्ष-सुख को जन्म-मरण से रहित और सर्वश्रेष्ठ समझ कर मुमुक्षु पुरुष विषय-सुख की किसी समय और किसी भी दशा में अभिलाषा न करे, किन्तु इस शरीर को भी केवल कर्मों के क्षय के लिए ही धारण करे।
टीका—मोक्ष-स्थान सब से ऊंचा, सब से श्रेष्ठ और जन्म-मरण अथवा वृद्धि-ह्रास से सर्वथा रहित है, अथवा यों कहिए कि मोक्ष का सुख विनाश से रहित और निरतिशय है, अतः उस सुख को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला और उसी. के लिए संयम ग्रहण करने वाला साधु विषयों की ओर कभी प्रवृत्त न हो तथा विषय-जन्य सुख की किसी समय और किसी भी दशा में निकृष्ट अभिलाषा न करे, क्योंकि विषयों की अभिलाषा आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाली होती है।
- यहां पर कोई प्रश्न करे कि यदि विषयों की इच्छा का सर्वथा त्याग ही कर देना है तो फिर इस शरीर को खान-पान आदि के द्वारा स्थिर रखने की भी क्या जरूरत है? इसका समाधान यों कहते हैं कि पूर्व कर्मों के विनाश के लिए इस शरीर का संरक्षण करना परम आवश्यक है, क्योंकि बिना इसके संयमानुष्ठान के द्वारा होने वाला कर्मों का विनाश सर्वथा असम्भव है। तात्पर्य यह कि धर्मानुष्ठान के लिए ही शरीर को धारण करने एवं सुरक्षित रखने की आवश्यकता है, न कि अन्नादि के द्वारा पुष्ट करके विषय सेवनार्थ उसको स्थिर रखने की।
इस समस्त विवेचन में सूत्रकार ने मोक्ष का स्थान, उसके मुख्य साधन और शरीर के पालन-पोषण का उद्देश्य इन तीनों बातों को अच्छी तरह से समझा दिया है, जैसे कि मोक्ष का स्थान सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है, उसका साधन विषयों से सर्वथा निवृत्त होकर संयम का आराधन करना है तथा निर्दोष भिक्षा के द्वारा शरीर के पोषण करने का तात्पर्य पूर्व-संचित कर्ममल का विनाश करना है। इस प्रकार साधन-सम्पन्न मुमुक्षु जीव एक न एक दिन आत्मा के साथ लगे हुए कर्म-मल को धोकर आत्म-शुद्धि को अवश्य प्राप्त कर लेता है जो कि परम कल्याण-स्वरूप निर्वाण का अत्यन्त निकटवर्ती पूर्वरूप है। अब अप्रमत्त मुनि के अन्य आचार का वर्णन करते हैं
विगिंच कम्मणो हेउं, कालकंखी परिव्वए । मायं पिंडस्स पाणस्स, कडं लभ्रूण भक्खए ॥ १५ ॥
विविच्य कर्मणो हेतुं, कालकांक्षी परिव्रजेत् । मात्रां पिण्डस्य पानस्य, कृतं लब्ध्वा भक्षयेत् ॥ १५॥
___ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 243 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं
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