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देहाध्यास की बिल्कुल उपेक्षा कर देनी चाहिए ।
मुमुक्षु के लिए जो हितकर है अब उसका उल्लेख करते हैं
आवण्णा दीहमद्धाणं, संसारम्मि अणन्तए । तम्हा सव्वदिसं पस्सं, अप्पमत्तो परिव्व ॥ १३॥ आपन्ना दीर्घमध्वानं, संसारेऽनन्तके I तस्मात् सर्वदिशं पश्यन् अप्रमत्तः परिव्रजेत् ॥ १३ ॥
पदार्थान्वयः—–— आवण्णा— प्राप्त हुआ, दीहं – दीर्घ, अद्धाणं – मार्ग को, अनंतए — अनन्त, संसारम्मि — संसार में, तम्हा - इसलिए, सव्वदिसं— सब दिशाओं को, पस्सं – देखकर, अप्पमत्तोप्रमाद-रहित हो कर, परिव्वए - चले ।
मूलार्थ - अज्ञानी जीव इस अनन्त संसार में जन्म-मरण के बड़े लम्बे चक्र में पड़े हुए हैं, इसलिए उनकी सारी दिशाओं का अवलोकन करता हुआ मुमुक्षु पुरुष सदा प्रमाद-रहित होकर इस संसार में वेचरण करे ।
टीका - अज्ञानी जीवों की जन्म-मरण परम्परा का चक्र बराबर चलता रहता है, उसका अन्त आना बड़ा ही कठिन है। तथा प्रवाह रूप से अनादि अनन्त इस संसार चक्र पर चढ़ा हुआ जीव जिन दिशाओं में घूमता है, वे संक्षेप से अठारह प्रकार की हैं। जिनका नाम -निर्देश इस प्रकार है- १. पृथ्वी, २. जल, ३. अग्नि, ४. वायु, ५. मूल, ६. स्कन्ध, ७. बीज, ८. पर्वबीज, ६. द्वीन्द्रिय, १०. त्रीन्द्रिय, ११. चतुरिन्द्रिय, १२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, १३. नारकी, १४. देव, १५. संमूर्च्छिम्, १६. कर्मभू मनुष्य, १७. अकर्मभूमिज मनुष्य और १८. अन्तर्खीपज ।
तात्पर्य यह है कि प्रमादी जीव इन अठारह प्रकार की दिशाओं-विदिशाओं में निरन्तर परिभ्रमण करते रहते हैं। इनकी इस दशा का विलोकन करता हुआ विवेकी पुरुष अपने संयम मार्ग में सदा अप्रमत्त रहकर विचरण करे, क्योंकि प्रमाद का फल निस्सन्देह संसार - भ्रमण ही है, अतः जो जीव प्रभाद के वश में आकर अपने संयम मार्ग से इधर-उधर हो जाते हैं, वे फिर जन्म-मरण के चक्र में पड़कर संसार में घूमने लग जाते हैं और उनका परिभ्रमण - मार्ग बहुत ही लम्बा होता है। इन सारी बातों का विचार करके मुमुक्षु पुरुष कभी भी प्रमाद का सेवन न करे और सदा सावधान रहकर ही अपने संयम मार्ग पर चलता रहे। इसी प्रयोजन से शास्त्रकार लिखते हैं कि- 'सव्वउ अप्पमत्तस्स • नत्थि भयं' अर्थात् जो प्रमादी पुरुष है उसी को भय है और जो प्रमाद से रहित है उसको किसी प्रकार का कहीं से भी भय नहीं है ।
प्रमाद-रहित पुरुष के आगामी कर्त्तव्य
बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि । पुव्वकम्मक्खयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ॥ १४ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 242 / खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठ अज्झयणं