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प्राण-शून्य शरीर की तरह निर्जीव और मृतप्राय है। वह चारित्र की तरह पापावरोधक और कर्म-निर्जरा का साधक नहीं है तथा ज्ञान-शून्य चारित्र भी अधिक बलवान् नहीं होता, इसलिए मुमुक्षु पुरुष के लिए दोनों का ही सम्पादन करना परम आवश्यक होता है। भाषा-विज्ञान भी आत्मकल्याण में सहायक नहीं
जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्वसो । मणसा कायवक्केणं, सव्वे ते दक्खसंभवा ॥ १२॥
ये केचित् शरीरे सक्ताः , वर्णे रूपे च सर्वशः ।
मनसा कायवाक्येन, सर्वे ते दुःखसंभवाः ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-जे–जो, केइ-कोई, सरीरे—शरीर में, सत्ता—आसक्त हैं, वण्णे—वर्ण में य—और, रूवे रूप में, सव्वसो—सर्व प्रकार से, मणसा—मन से, कायवक्केणं—काया और वचन से, ते—वे, सव्वे सब, दुक्खसंभवा-दुखों के भाजन हैं। ___ मूलार्थ जो जीव मन, वचन और काया के द्वारा सर्व प्रकार से शरीर में और शरीर के वर्ण और रूप में आसक्त हैं वे सब दुखों के भाजन हैं।
टीका—जो जीव शरीर में अर्थात् उसके अवयवों और गुणों में अधिक आसक्त हैं, उनको सबसे अधिक दुख उठाना पड़ता है। क्योंकि उनको औरों की अपेक्षा इस शरीर की रक्षा और पालन-पोषण में अधिक व्यग्र रहना पड़ता है। वे इसे ही बलवान् और पुष्ट बनाने के लिए रात-दिन चिन्तित रहते हैं। उनका मानसिक बल इसी बात के सोचने में व्यय होता रहता है कि किस औषधि के सेवन से मैं अधिक बलवान् बन सकता हूं? और निरन्तर इस विषय में उसकी वैद्य-बन्धुओं से चर्चा चलती रहती है, यह वाणी का व्यय है तथा बहुत से परामर्श के द्वारा प्राप्त की हुई औषधि आदि के निर्माण और सेवन से अपनी कायिक शक्ति विषयक श्रम का परिचय देते हैं। इस प्रकार उसको अपने शरीर के रूप एवं लावण्य को यथावत् बनाए रखने में ही अधिक-से-अधिक समय देना पड़ता है जो कि मुमुक्षु पुरुष के लिए सर्वथा. अवांछनीय है। वास्तव में ऐसे देहाध्यासी जीव जितने भी शारीरिक और मानसिक दुख हैं उन सबके भाजन बनते हैं, क्योंकि उनका बढ़ा हुआ देहाध्यास उनसे अनुचित कार्य करवाने में भी जरा संकोच नहीं करता, अर्थात् देहाध्यास के व्यामोह में पड़ कर वे जघन्य-से-जघन्य काम करने में भी किसी प्रकार की लज्जा नहीं मानते। उसके परिणाम स्वरूप चाहे उन्हें भयंकर से भयंकर कष्ट का सामना भी क्यों न करना पड़े। अतएव उनकी आधि-व्याधि में औरों की अपेक्षा जरूर कुछ-न-कुछ उत्कर्ष अवश्य होता है।
गाथा में आए हुए 'य–च' शब्द से रूप और वर्ण के अतिरिक्त नाना प्रकार के काम-भोगादि विषय-विकारों का समुच्चय कर लेना चाहिए जिससे कि विषयासक्ति का भी बोध सुगमता से हो सके। एवं 'सव्वसो सर्वशः' का अर्थ करना, कराना और अनुमोदन करना है जिसका अभिप्राय आसक्ति की आत्यन्तिकता का बोध कराना है। सो इस प्रकार से विचार करके मुमुक्षु जीव को
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 241 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं