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से उक्त अध्ययन की व्याख्या की है जो कि मैं तुम्हारे प्रति कह चुका हूं। वे भगवान् सर्वोत्कृष्ट ज्ञान
और दर्शन के धारण करने वाले हैं तथा इन्द्रादि देवों के द्वारा पूजे जाने से अर्हन् कहाते हैं और ज्ञातवंशीय महाराज सिद्धार्थ के पुत्र हैं एवं महारानी त्रिशला के अंग से उत्पन्न होने वाले हैं, अथवा विस्तृत कीर्ति वाले या विस्तारयुक्त शिष्य-समुदाय वाले होने से भी जो वैशालिक कहे जाते हैं, उन्होंने देव और मनुष्यों की सभा में इस निर्ग्रन्थ नामक अध्ययन का उपर्युक्त रूप में वर्णन किया है।
इस गाथा में भगवान् के गुणों का इसीलिए कथन किया गया है कि निर्ग्रन्थ-धर्म सर्वज्ञ-भाषित मोक्ष का अत्यन्त साधक है, अतएव इसके सम्यग् आराधन से जीव अवश्य ही मोक्ष धाम को प्राप्त कर लेता है। - इसके अतिरिक्त ज्ञान और दर्शन का दूसरी बार प्रयोग करने का भाव यह है कि दर्शन समान्यग्राही है और ज्ञान विशेषावगाही है तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म एक साथ क्षय होने से ज्ञान और दर्शन की उपलब्धि भी एक ही समय में उत्पन्न हो जाती है, परन्तु दोनों का उपयोग एक समय में नहीं होता। जिस समय ज्ञान का उपयोग होता है उस समय दर्शन का नहीं और जिस समय दर्शन का उपयोग होता है उस समय ज्ञान का नहीं। अतः एक समय में दो उपयोग नहीं होते। इन दोनों का भेद सिद्ध करने के लिए ही शास्त्रकार ने दोनों का पृथक्-पृथक् दो बार प्रयोग किया है।
ज्ञान के साथ जो ‘अनुत्तर' विशेषण दिया है उससे शास्त्रकार को भगवान् के ज्ञान की परिपूर्णता सिद्ध करना अभिप्रेत है, अर्थात् भगवान् का ज्ञान सर्वदेशीय एवं सर्वकालीन है। अतएव उन सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी भगवान् के द्वारा वर्णन किए जाने से निर्ग्रन्थ-धर्म की सर्वश्रेष्ठता किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखती। यह निर्ग्रन्थवृत्ति कोई मूढ़वृत्ति नहीं है, किन्तु ज्ञान और चारित्र रूप है। इसके अतिरिक्त ज्ञान और क्रिया इन दोनों के सहयोग से मोक्ष को अंगीकार करना और प्रत्येक की स्वतन्त्रहेतुता का निराकरण करना अनेकान्तवाद का समर्थन और एकान्तवाद का युक्ति पुरस्सर खण्डन है। ___इस अध्ययन में यह भी स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि संसार में जितने भी दुख हैं, उन सब का कारण अविद्या है। विद्या-रहित अर्थात् अज्ञानी जीव ही अधिकतया दुखी होते हैं। इनके विपरीत अविद्या की प्राप्ति और सत् क्रिया का अनुष्ठान इस जीव को सर्व दुखों से रहित करने वाला है। श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू! जैसे मैंने भगवान् से सुना है वैसे ही मैंने तुम्हारे प्रति वर्णन कर दिया है। इसमें मैंने निज बुद्धि से कल्पित कुछ नहीं कहा है। ऐसा मैं
कहता हूं।
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तुपकानप्रचापजव्यपातपूण
क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय अध्ययन संपूर्ण
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 247 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं
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