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________________ अब इसी विषय में फिर कहते हैं भणंता अकरेन्ता य, बन्धमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं ॥ १० ॥ भणन्तोऽकुर्वन्तश्च, बन्धमोक्ष-प्रतिज्ञिनः । वाग्वीर्यमात्रेण, समाश्वासयन्त्यात्मानम् ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः–भणंता-बोलते हुए, य—और, अकरेन्ता—क्रिया न करते हुए, बन्धमोक्ख—बन्ध और मोक्ष के, पइण्णिणो—संस्थापक, वाया-वचन, विरिय–वीर्य, मेत्तेण—मात्र से, अप्पयं—आत्मा को, समासासेंति—आश्वासन देते हैं। मूलार्थ—अकेला ज्ञान ही मोक्ष का साधक है इस प्रकार बोलने और तदनुकूल किसी प्रकार की क्रिया का अनुष्ठान न करने वाले बन्ध-मोक्ष के व्यवस्थापक वादी लोग केवल वचन-मात्र से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं। . टीका—इस गाथा में ज्ञान-वादियों का युक्ति-पूर्वक कुछ मीठा सा उपहास किया गया है। शास्त्रकार कहते हैं कि ज्ञानवादी महानुभावों का कथन है कि अकेला ज्ञान ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रधान हेतु है, इसी से मोक्ष की उपलब्धि सुनिश्चित है, अतः चारित्र का आराधन सर्वथा अनावश्यक है। बन्ध और मोक्ष के स्वरूप को जान लेना ही बन्ध की निवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार से बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था अर्थात् स्थापना करने वाले ये वादी लोग वास्तव में वचन-मात्र से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं, किन्तु उनके कथनानुसार मोक्ष की प्राप्ति हो जाती हो ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल जान लेने से ही प्राप्त स्थान की उपलब्धि कभी नहीं हो सकती, उसके लिए तो साथ में गमन रूप क्रिया भी अपेक्षित है। . ज्ञानवादियों की ओर से यह भी कहा जाता है कि जिस प्रकार घर के अन्दर रहा हुआ वर्षों का अन्धकार दीपक के प्रकाश से तत्क्षण चला जाता है, ठीक उसी प्रकार हृदय में ज्ञान का उदय होते ही दुख के हेतुभूत सभी कर्म भाग जाते हैं, परन्तु यह उनका कथन कुछ युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ज्ञान तो प्रकाशक है, प्रेरक नहीं। इसलिए वह अपने में कर्म-मल को दूर करने की शक्ति नहीं रखता। कर्म-मल को धोने अथवा दूर करने का सामर्थ्य तो आस्रव-निरोध रूप चारित्र में है। जिस प्रकार घर में प्रकाशित हुए दीपक से घर का अन्धकार तो चला जाता है, परन्तु वहां पर पड़े हुए पत्थर, कंकर और कूड़े-कर्कट को वह प्रकाश दूर नहीं कर सकता, इसी प्रकार हृदय-मन्दिर में ज्ञान का उजाला होने पर उससे आत्मा के साथ लगे हुए कर्म-मल का दूर होना कठिन है। जिस प्रकार घर के अन्दर रहे हुए कूड़े-कचरे को दीपक के प्रकाश से देख-भाल कर झाडू के द्वारा उसको निकाल कर बाहर फेंक दिया जाता है, इसी प्रकार ज्ञान-ज्योति से आत्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को देखकर चारित्र के द्वारा अलग करके बाहर फैंक देने की आवश्यकता होती है। इसलिए ज्ञान और चारित्र श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 239 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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