________________
जो लोग केवल मात्र ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं और उसके लिए आश्रव निरोध को स्वीकार नहीं करते उनके विचारों की आलोचना शास्त्रकार निम्नलिखित गाथा में करते हैं
इहमेगे उ मन्नन्ति, अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ता णं, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ ६ ॥
इहैके मन्यन्ते, अप्रत्याख्याय पापकम् ।
आचार विदित्वा खलु, सर्वदुःखात् विमुच्यते || ६ || पदार्थान्वयः—इहं—इस संसार में, एगे किसी एक मत के अनुयायी, उ—फिर, मन्नन्तिमानते हैं, अप्पच्चक्खाय—प्रत्याख्यान किए बिना, पावगं—पाप के केवल, आयरियं—आचार विदित्ता—जानकर, णं—वाक्यालंकार में, सव्व—सर्व, दुक्खा–दुःखों से, विमुच्चई—छूट जाता है। ____ मूलार्थ किसी एक मत के अनुयायियों की ऐसी भी मान्यता है कि आश्रवों अर्थात् पाप-द्वारों को बन्द किए बिना, अर्थात् इनका त्याग किए बिना ही केवल अपने कर्तव्यानुष्ठान को जान लेने से आचार अर्थात् तत्त्व को समझ लेने मात्र से यह जीव सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
टीका—अनेक ज्ञान-वादियों का ऐसा मत है कि पाप-कर्मों का प्रत्याख्यान किए बिना ही केवल कर्तव्य-कर्म के ज्ञान-मात्र से ही यह प्राणी दुखों से छूट जाता है, इसलिए शारीरिक और मानसिक दुखों से मुक्त होने के लिए केवल मात्र ज्ञान की ही आवश्यकता है। परन्तु यह कहने वाले महानुभावों का कथन कुछ युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि औषधि के ज्ञान-मात्र से कभी रोग की निवृत्ति होती नहीं देखी गई, अपितु रोग दूर करने के लिए तो उसके अनुकूल रोग-प्रतिकारक औषधियों का भक्षण करना ही आवश्यक होता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार औषधि के ज्ञान-मात्र से रोग की निवृत्ति नहीं हो सकती, अपितु रोग को समझ कर उसके अनुसार रोग-नाशक औषधि का उपयोग करना आवश्यक होता है, इसी प्रकार कर्म-जन्य रोग की निवृत्ति भी केवल कर्म के ज्ञान मात्र से नहीं हो सकती, उसके लिए तो आश्रव-त्यागरूप चारित्र के अनुष्ठान की आवश्यकता होती है। दुख और उसके कारण भूत कर्माश्रवों के ज्ञान के साथ-साथ उनका त्याग रूप चारित्राराधन भी नितान्त आवश्यक है। इसलिए दुखों से छूटने अथवा मोक्ष को प्राप्त करने के लिए न केवल चारित्र ही अपेक्षित है और न केवल ज्ञान-मात्र ही, किन्तु ज्ञान और चारित्र दोनों ही अपेक्षित होते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञान के साथ चारित्र और चारित्र के साथ ज्ञान इन दोनों के साथ रहने पर ही दुख की निवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति संभव हो सकती है, अन्यथा नहीं। इसी आशय को ध्यान में रखकर जैन शास्त्रकारों ने 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इस सूत्र में उक्त सिद्धान्त को स्थिर कर दिया है। अतः ज्ञानमात्र से ही दुख-निवृत्ति या मोक्ष-प्राप्ति की मान्यता केवल भ्रान्त कल्पना है जो कि किसी प्रकार से भी विश्वास के योग्य प्रतीत नहीं होती।
मूल गाथा में दिए गए 'आयरियं' शब्द के संस्कृत प्रतिरूप आचार्य, आचरित और आर्य, ये तीन शब्द बनते हैं, इसलिए यहां पर इन तीनों का अर्थ ज्ञान अभिप्रेत है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 238 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं