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अब इसी विषय में फिर कहते हैं
आयाणं नरयं दिस्स, नायएज्ज तणामवि । दोगुंछी अप्पणो पाए, दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं ॥ ८ ॥ आदानं नरकं दृष्ट्वा, नाददीत तृणमपि । जुगुप्स्यात्मनः पात्रे, दत्तं भुञ्जीत भोजनम् || ८ ||
पदार्थान्वयः—आयाणं—- धन-धान्यादि का ग्रहण, नरयं - नरक का हेतु, दिस्स — देख करके, नायज्ज — उसे ग्रहण न करे, तणामवि – तृणमात्र भी, दोगुंछी – आहार के बिना निर्वाह नहीं हो सकता, इस प्रकार से आत्मा की जुगुप्सा अर्थात् निन्दा करने वाला, अप्पणो – अपने, पाए – पात्र में दिन्नं — गृहस्थ का दिया हुआ, भोयणं - भोजन, भुंजेज्ज - खाए ।
मूलार्थ-धन-धान्यादि पदार्थों को नरक -प्राप्ति का हेतु समझकर तृण - मात्र वस्तु भी किसी की आज्ञा के बिना ग्रहण न करे तथा आहार के बिना इस शरीर का निर्वाह नहीं हो सकता, इस प्रकार से आत्म- जुगुप्सा अर्थात् आत्मनिन्दा करता हुआ साधु-पुरुष अपने पात्र में किसी गृहस्थ के द्वारा दिए हुए भोजन का आहार करे ।
टीका- यह गाथा साधु के विशिष्ट आचार से सम्बन्ध रखती है। इसमें इस बात का उपदेश दिया गया है कि किसी के द्वारा धन-धान्यादि का ग्रहण करना नरक का हेतु है, इसलिए बिना स्वामी की आज्ञा के साधु तृण मात्र पदार्थ को भी अंगीकार न करे तथा सदैव काल अपनी आत्मा को यह उपदेश करता रहे कि 'मुझे धिक्कार है जो कि मैं आहार करता हूं, परन्तु क्या करूं, बिना आहार के मैं निर्वाह नहीं कर सकता हूं, यह शरीर बिना आहार के रह भी नहीं सकता, इसलिए गृहस्थ के द्वारा अपने पात्र में जो भोजन उसे प्राप्त हो उसी का आहार करना चाहिए ।
यहां पर अपने पात्र में आहार करने की जो आज्ञा दी है उसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई गृहस्थ, साधु को अपने पात्र में भोजन करने की आज्ञा भी दे दे तो भी साधु को गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करना चाहिए ।
यहां इतना स्मरण रहे कि गृहस्थ के द्वारा प्राप्त होने वाला भोजन शुद्ध और निर्दोष ही होना चाहिए।
यहां प्रथम सत्य की गवेषणा करने का उपदेश दिया गया है, इससे दूसरा महाव्रत प्रमाणित हुआ। फिर किसी प्राणी का वध नहीं करना चाहिए, इससे प्रथम महाव्रत का स्वरूप ज्ञात हुआ । अदत्ता - दान का प्रत्यक्ष निषेध किया जा रहा है जो कि तीसरा महाव्रत है। 'गयासं' आदि गाथा में परिग्रह का निषेध है. और इसी के अन्तर्गत मैथुन की भी निवृत्ति है । इस प्रकार व्युत्क्रम रूप से विधि-निषेध के द्वारा पांचों महाव्रतों का अंगीकार और पांचों आश्रवों अर्थात् पाप-द्वारों का निषेध किया गया है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 237 'खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठं अज्झयणं