________________
अज्झत्थं सव्वओ सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराउ उवरए ॥ ७ ॥
अध्यात्मं सर्वतः सर्वं दृष्ट्वा प्राणान्प्रियात्मकान् | न ं हन्यात्प्राणिनः प्राणान्, भयवैरादुपरतः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः - अज्झत्थं- - आत्मा में रहने वाले सुख-दुख, सव्वओ - सर्व प्रकार से, दिस्स — देख करके, पाणे - प्राणों को, पियाय – प्रिय स्वरूपों को, न हणे-घात न करे, पाणिणो - प्राणी के, पाणे – प्राणों को और, भय — भय, वेराउ — वैर से, उवरए – निवृत्त होवे ।
मूलार्थ — आत्मा में अर्थात् मन में सर्व प्रकार से सुख-दुख आदि सभी रहते हैं और हर एक जीव को अपने प्राण अत्यन्त प्रिय हैं, ऐसा जानकर किसी भी प्राणी के प्राणों का घात न करे तथा भय और वैर से सदा मुक्त रहे ।
टीका—सर्व प्रकार के विचारों और संस्कारों की उत्पत्ति और स्थिति का आधार मन है। कर्म-बन्ध और कर्म-निर्जरा की मूल - भित्ति का अवलम्बन भी मन के ऊपर ही है एवं सुख-दुख आदि का भोग भी मन के ही आश्रित है तथा बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था भी मन की कलुषितता और विशुद्धि के आधीन है, इसलिए इस दृष्टि से संसार के समस्त व्यापारों को आध्यात्मिक कहा जा सकता है।
प्रत्येक प्राणी में सुख की अभिलाषा रहती है, हर एक जीव को सुख प्रिय और दुख अप्रिय है। संसार में ऐसा एक भी जीव दृष्टिगोचर नहीं हो सकता कि जिसने कभी भी दुख की इच्छा की हो । इससे सिद्ध हुआ कि प्रिय वस्तु सुख का हेतु है और अप्रिय वस्तु दुख का कारण है। संसार में जितने भी जीव हैं, उनको प्राणों से अधिक और कोई वस्तु प्यारी नहीं है । यावन्मात्र प्राणी हैं वे सब अपने प्राणों की रक्षा के निमित्त और सब कुछ दे देने को तैयार रहते हैं, इसलिए प्राण सबसे अधिक वस्तु है, ऐसा समझ लेने पर किसी प्राणी के प्राणों का कभी भी अपहरण -घात नहीं करना चाहिए तथा घात करने की किसी को प्रेरणा भी नहीं देनी चाहिए एवं घातक क्रूर कर्म की अनुमोदना भी नहीं करना चाहिए ।
प्राणि-मात्र को अपने समान समझ कर उनकी यथा - शक्ति रक्षा करने में ही प्रवृत्त होना चाहिए। किसी प्राणी के घात न करने अतिरिक्त किसी जीव को सामान्य भय भी नहीं देना चाहिए और जीव से वैर भाव भी नहीं रखना चाहिए, अर्थात् आत्मान्वेषी पुरुष को प्राण-वध के अतिरिक्त भय और वैर से भी सदा के लिए उपरत हो जाना चाहिए। स्मरण रहे कि जो प्राणी किसी जीव का वध नहीं करता, किसी को भय नहीं देता और किसी से वैर नहीं करता तथा हर एक जीव के सुख-दुख को अपनी आत्मा का सुख-दुख समझता है उसी की आत्मा में दिव्य ज्ञान की अलौकिक ज्योति का उदय होता है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 236 / खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठं अज्झयणं