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यद्यपि त्याग का वास्तविक फल तो मोक्ष है, परन्तु राग- पूर्वक त्याग का फल तो देवलोकों की प्राप्ति ही बताया गया है ।
इसके अतिरिक्त गाथा में जो सब से प्रथम 'गो' शब्द का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य गोधन की महत्ता को बताना है, क्योंकि आर्यभूमि के लोगों का ऐहिक अभ्युदय प्रायः गोवंश पर ही अधिकांश निर्भर है, तथा दूसरी श्रेणी में अश्व शब्द का उल्लेख किया गया है, क्योंकि यह पशु भी इस देश के लिए अधिक-से-अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है । 'पोरुषं' यह 'पौरुषेयं' का प्रतिरूप है, जिसका अर्थ होता है— पुरुष - समूह |
अब फिर इसी विषय का वर्णन करते हैं—
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थावरं जंगमं चेव, धणं धन्नं उवक्खरं । पच्चमाणस्स कम्मेहिं, नालं दुक्खाउ मोय || ६ | स्थावरं जंगमं चैव, धनं धान्यमुपस्करम् ।
पच्यमानस्य कर्मभिः, नालं दुःखान्मोचने || ६ |
पदार्थान्वयः—थावरं—–स्थावर - गृहादि, जंगमं — जंगम —— मनुष्यादि, च – पाद- पूर्त्यर्थक है, एवअवधारणार्थक है, धणं धन्नं- धन-धान्य, उवक्खरं- घर के उपकरण विशेष, पच्चमाणस्स — दुख पाता हुआ, कम्मेहिं—–— कर्मों से, न— नहीं है— पूर्वोक्त पदार्थ, अलं— समर्थ, दुक्खाउ — दुख से, मोय — छुड़ाने को ।
मूलार्थ- -घर का सामान, धन, धान्य और मनुष्य आदि कोई भी पदार्थ कर्मों द्वारा दुख पाते हुए जीव को दुख से छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सकता है ।
टीका–जब यह जीव अपने किए हुए कर्मों से दुख को प्राप्त होता है तब घर, दुकान, मनुष्य, पशु, धन, धान्य तथा अन्य घर का कोई भी पदार्थ जीव के दुख को मिटाने या कम करने की शक्ति नहीं रखता, इसलिए इन पदार्थों में ममत्व या आसक्ति रखना निरी भूल है । ये पदार्थ तो संचित पुण्य के एकमात्र फल विशेष हैं। इनके द्वारा दुखों से छुटकारा मिलने में किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती, अतः ये सब साधकों के लिए हेय हैं ।
'स्थावर' से स्थिर रहने वाले सुवर्ण और प्रासाद आदि का ग्रहण इष्ट है और जंगम से चलने फिरने वाले मनुष्यादि ग्रहण किए जाने चाहिएं। यहां पर यह बात भी स्मरण करने योग्य है कि सर्वार्थसिद्धि नाम की वृत्ति के कर्त्ता ने इस गाथा को प्रक्षिप्त माना है । यथा – ' - ' अत्रान्तरे थावरेति' गाथा प्रक्षेपरूपा ज्ञेया द्वयोष्टीकयोरव्याख्यातत्वात्', परन्तु अन्य गुजराती भाषा के टीकाकारों ने इसे प्रक्षिप्त नहीं माना तथा दीपिकाकार भी इसे प्रमाणभूत मानकर इसकी व्याख्या करते हैं ।
अब सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद करने वाले सत्यान्वेषी साधक के कर्त्तव्यों का वर्णन
करते हैं
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 235 / खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठं अज्झयणं