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सम्बन्ध तोड़ दे। इतना ही नहीं, अपितु उनसे अपने पूर्व परिचय का दिग्दर्शन भी न करावे। जैसे कि तुम और हम एक ही स्थान के रहने वाले हैं, तुम हमारे अमुक सम्बन्धी हो, इत्यादि पूर्व परिचय की भी इच्छा न करे, क्योंकि जब तक ममता और राग है, तब तक तो संसार के सभी सम्बन्ध उपस्थित रहेंगे और ममत्व के परित्याग से और स्नेह के विच्छेद से फिर कोई सांसारिक सम्बन्ध शेष नहीं रहता तथा मन में पूर्वसंस्तव अर्थात् पूर्व परिचय की जो लेशमात्र भी अभिलाषा है उसको त्याग देने से उसमें अर्थात् स्नेह-विच्छेद में और भी प्रबलता आ जाती है। इसलिए सांसारिक विषयों में ममता और स्नेह का त्याग करके मैत्री-भाव के द्वारा प्राणीमात्र पर समभाव रखना चाहिए। .यहां पर यह भी अवश्य ध्यान में रहे कि स्नेह और मैत्री में बहुत अन्तर है, स्नेहराग-जन्य है और मैत्री समता अर्थात् समभाव से उत्पन्न होने वाला भाव है। इसलिए स्नेह रागजन्य होने से कर्मबन्ध का हेतु है और मैत्री आत्मा की समभाव-परिणति की एक अवस्था विशेष होने से कर्मों की निर्जरा का हेतु है। अब इसकी फलश्रुति का वर्णन करते हैं
गवासं मणिकुण्डलं, पसवो दासपोरुसं । सव्वमेयं चइत्ता णं, कामरूवी भविस्ससि ॥ ५ ॥
गवाश्वं मणिकुण्डलं, पशवो दासपौरुषम् ।
सर्वमेतत् त्यक्त्वा खलु, कामरूपी भविष्यसि || ५.॥ पदार्थान्वयः—गवासं—गाय-घोड़ा आदि, मणि-रलादि, कुंडलं कुण्डल, पसवो—पशु, दास-दास, नौकर, पोरुसं-पुरुषों का समूह, सव्वं—सर्व, एयं—यह, चइत्ता र्ण–छोड़ करके, कामरूवी इच्छानुकूल रूप बनाने वाला, भविस्ससि होगा।
मूलार्थ हे शिष्य! गाय, घोड़ा, मणि, कुंडल, पशु, दास और अन्य पुरुषों के समूह का परित्याग करने पर तू परलोक में यथारुचि रूप बनाने वाला अर्थात् वैक्रिय-शक्ति-सम्पन्न देवता हो जाएगा।
टीका—इस गाथा में ऐहिक पदार्थों के त्याग का जो पारलौकिक फल है, उसका दिग्दर्शन कराया गया है। गुरु शिष्य को उपदेश करता है कि हे शिष्य! यदि तू गाय, घोड़ा, मणि, रल और दास-दासी आदि पदार्थों का परित्याग कर देगा तो तुझको इस लोक और परलोक में ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाएगी जिससे कि तू अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण कर सकेगा। तात्पर्य यह कि सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध विच्छेद करने के बाद शक्तिशाली मुनि अथवा देवता के रूप को प्राप्त करके तेरे में वैक्रिय-लब्धि का प्रादुर्भाव हो जाएगा। उसके प्रभाव से तू यथारुचि रूप आदि को धारण करने वाला हो जाएगा। इसलिए इन गौ, अश्वादि सांसारिक पदार्थों का परित्याग करके मोह-ममत्व से रहित होकर तू संयम का ही पालन कर ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 234 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं
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