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________________ टीका – विवेकशील पुरुष को इस बात का भली- भान्ति विचार करना चाहिए कि माता, पिता स्नुषा, भ्राता, भार्या और अपने अंग से उत्पन्न हुआ पुत्र, इत्यादि जितने भी सम्बन्धी जन हैं, वे सब मेरे कर्म-जन्य दुख-भोग के समय मेरी किसी प्रकार की भी सहायता नहीं कर सकते, अर्थात् मेरे दुख का न्यूनाधिक रूप में भी विभाग नहीं कर सकते — उसे किसी तरह से भी बांट नहीं सकते। क्योंकि जो कर्म जिस आत्मा ने किए हैं उनका फल भी उसे ही भोगना पड़ता है, दूसरे को नहीं। इसलिए इन सब सम्बन्धी-जनों से मुझे किसी प्रकार का भी मोह नहीं रखना चाहिए और यदि कुछ है भी तो उसे भी सर्वथा त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार मैं भी इनके कर्म-जन्य दुख भोग में किसी प्रकार की सहायता नहीं पहुंचा सकता, अर्थात् इनके दुख को मैं भी बांट नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि प्रत्येक प्राणी अपने - अपने किए हुए कर्मों का स्वयमेव ही फल भोगता है, इसमें दूसरे किसी को अणुमात्र भी हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है । जब कि यह कर्म - सम्बन्धी नियम अटल है तब जो प्राणी इन सम्बन्धी - जनों के व्यामोह में पड़कर अपनी आत्मा का पतन कर रहा है, इससे बढ़कर अज्ञानी और मूर्ख दूसरा कौन हो सकता है? इसलिए विचारशील पुरुषों को उचित है कि वे जहां तक हो सके, अपने सांसारिक व्यामोह को त्यागकर आत्म-दर्शन की ओर ही अधिक-से-अधिक झुकने का प्रयत्न करें क्योंकि पुण्यशील आत्मा . के बिना अन्य जीव का नं कोई रक्षक है और न कोई सहायक ही है । जब कि परलोक में इस जीव का माता-पिता आदि कोई भी सम्बन्धी रक्षक नहीं हो सकता और यह जीव अपने कर्मों का स्वयं ही उत्तरदायी है तब फिर इसको क्या करना चाहिए? अब इस प्रश्न का निम्नलिखित गाथा में समाधान करते हैं एयमट्टं सपेहाए, पासे समियदंसणे छिन्दे गिद्धिं सिणेहं च, न कंखे पुव्वसंथवं ॥ ४ ॥ एतमर्थं सप्रेक्षया, पश्येत् शमित-दर्शनः । छिन्द्याद् गृद्धिं स्नेहं च, न कांक्षेत् पूर्वसंस्तवम् ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः – एयं - इस, अट्ठ— अर्थ को, सपेहाए— विचार करके, पासे – देखे, समियदंसणे - सम्यग्दृष्टि, छिंदे — छेदन करे, गिद्धिं – गृद्धिभाव, च- और, सिणेहं, स्नेह को, न कंखे-न चाहे, पुव्वसंथवं पूर्व परिचय को । मूलार्थ -- सम्यग्दृष्टि पुरुष इस पूर्वोक्त अर्थ अर्थात् विषय को अपनी बुद्धि से विचार करके देखे और अपने पूर्व परिचय की अभिलाषा न रखता हुआ ममत्व और स्नेह - भाव को तोड़ दे। टीका—जिसका मिथ्या-दर्शन शान्त हो गया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव इस पूर्वोक्त विषय को अर्थात् अपने माता-पिता आदि सम्बन्धी - जनों की परिस्थिति का विचार पूर्वक अवलोकन करके उनमें रहे हुए ममत्व और स्नेह भाव को उनसे पृथक् कर दे, अर्थात् उनसे अपनी ममता और प्यार का श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 233 / खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठ अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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