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एकेन्द्रिय आदि के मार्ग जीवों को प्राप्त होते हैं, अर्थात् इन एकेन्द्रिय आदि जीव-जातियों में उनका जन्म होता है। इसलिए पंडित पुरुष को चाहिए कि वह उक्त प्रकार की दशा का विचार करता हुआ अपनी आत्मा के द्वारा सत्य की अर्थात् संयम की गवेषणा करे और संसार के समस्त जीवों से सदा मित्रता का व्यवहार करे। यहां पर 'सत्य' शब्द संयम का बोधक है और संयम की पूर्ति के लिए मैत्री भाव की परम आवश्यकता है। इसलिए संयम का अन्वेषण और मैत्री भाव का आचरण इन दोनों का उल्लेख यहां किया गया है।
वास्तव में संयम का सार तो प्राणिमात्र से मित्रता धारण करना ही है, जैसे एक मित्र अपने मित्र के सुख-दुख में सदा सहायक होता है और किसी आपत्ति के आने पर सदा उसे उससे बचाने की कोशिश करता है, उसी प्रकार संसार के प्रत्येक जीव को अपना बन्धु समझकर एक सच्चे मित्र की भांति उससे मैत्रीभाव रखे और छोटे-से-छोटे जीव की विराधना से भी अपने को बचाने का यत्न करे।
इसके अतिरिक्त शास्त्रकार लिखते हैं कि- 'अप्पणा सच्चमेजेज्जा' आत्मा के लिए सत्य की खोज करे । इस कथन से पर के लिए आत्मान्वेषण का विधान नहीं पाया जाता, जिसका तात्पर्य यह है कि जब तक साधक स्वयं की खोज करके उसके अनुरूप आचरण नहीं करता तब तक दूसरों को उसके द्वारा उपदेश देना व्यर्थ ही होता है । इसलिए स्वयं आत्मान्वेषी बनकर दूसरों को उस सत्य का उपदेश देना चाहिए।
इस समस्त कथन से यह प्रमाणित हुआ कि पण्डित पुरुष सांसारिक सम्बन्धों को पाशरूप अर्थात् बन्धन रूप जानकर और उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले एकेन्द्रियादि के मार्ग को अच्छी तरह समझकर आत्म-ज्ञान के लिए सत्य की गवेषणा में प्रवृत्त होता हुआ संसार के समस्त छोटे-बड़े प्राणियों से मैत्री का व्यवहार करे। इसी में उसके सदसद् के विवेचन रूप पांडित्य की पूर्ण सफलता है। अब इसी विषय में फिर कहते हैं—
माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाए, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ ३ ॥ माता पिता स्नुषा भ्राता भार्या पुत्राश्चौरसाः ।
नालं ते मम त्राणाय, लुप्यमानस्य स्वकर्मणा || ३ ||
पदार्थान्वयः –—–— माया —–— माता, पिया - पिता, हुसा — पुत्र वधू, भाया — भ्राता, भज्जा - पत्नी, भार्या, य— और, पुत्ता – पुत्र, ओरसा - औरस पुत्र अर्थात्, ते – वे सब, मम — मेरे, ताणाए – रक्षण के लिए, नालं – समर्थ नहीं हैं, लुप्पंतस्स – दुख पाते हुए को, सकम्पुणा - अपने कर्मों से ।
मूलार्थ — अपने कर्मों के अनुसार दुख भोगने के समय माता, पिता, स्नुषा अर्थात् पुत्रवधू, भार्या तथा औरस पुत्र ये सब मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकते, अर्थात् कर्म-फल के भोग में ये बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं कर सकते ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 232 / खुड्डागनियंठिज्जं छट्ठ अज्झयणं