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सद्विद्या से रहित पुरुष हैं उनको शारीरिक और मानसिक सब प्रकार के दुख प्राप्त होते हैं, अतएव वे मूढ़ इस संसार में दरिद्रता आदि दुखों से बार-बार पीड़ित होते हैं, क्योंकि जो मिथ्यात्व से युक्त हैं वे ही अविद्वान अथवा अज्ञानी हैं, उनको सत् और असत् का ज्ञान नहीं होता, इसीलिए वे अपने जन्म
और मरण की निवृत्ति भी नहीं कर सकते और साथ में सम्यक्त्व-रहित होने के कारण वे अज्ञानी भी हैं। अतएव वे हित और अहित के ज्ञान से भी शून्य हैं।
सूत्र में पढ़े गए ‘अविज्जा'-अविद्या' शब्द का 'तत्त्व-विद्या से रहित होना' अर्थ ही युक्ति-संगत है, इसीलिए लौकिक विद्या के पारंगत होने पर भी वे विद्या-रहित ही माने जाते हैं। यदि उनमें तत्त्व-विद्या होती तो फिर वे इस संसार-चक्र में अनन्त बार भव-भ्रमण करने वाले न होते और उनमें जिस लौकिक विद्या का लेश दिखाई देता है वह वास्तव में विद्या नहीं, किन्तु अविद्या या कुत्सित विद्या ही है। यहां पर कुत्सित अर्थ में नञ् समास है अतएव सूत्रकार ने अविद्या से दुख और संसार चक्र में बार-बार भ्रमण करने का जो उल्लेख किया है, वह बहुत ही मार्मिक और हृदयग्राही है।
सारांश यह है कि अविद्या समस्त दुखों की मूल भित्ति है, अतः इसको दूर करके सद्बोध की प्राप्ति के लिए उद्यत रहना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य होना चाहिए। बहत सी प्रतियों में 'याबंति' पाठ भी देखा गया है, परन्तु अति प्राचीन प्रतियों में 'जाबंत' ही पाठ है और व्याकरण के नियमानुसार अधिक साधुता भी उसी में है, तो भी दीपिकाकार ने 'जावंति' पाठ मानकर ही व्याख्या की है, एवं 'विज्जा' में अकार का लोप किया गया है।
समिक्ख पण्डिए तम्हा, पास जाइपहे बहू ।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मित्तिं भूएसु कप्पए ॥ २ ॥ ___ समीक्ष्य पण्डितस्तस्मात्, पाशजातिपथान् बहून् ।
आत्मना सत्यमेषयेत्, मैत्री भूतेषु कल्पयेत् || २ || पदार्थान्वयः–समिक्ख-विचार करके, पंडिए—पण्डित, तम्हा—इसलिए, पास जाइपहेपाशरूप जातिपथ, बहू—बहुतों को, अप्पणा—अपनी आत्मा से, सच्चं सत्य की, एसेज्जा—गवेषणा करे और, मित्तिं मैत्री, भूएसु-जीवों में, कप्पए—करे । ___ मूलार्थ—इसलिए पंडित पुरुष एकेन्द्रियादि पाश-रूप बहुत प्रकार के जाति-पथों के सम्बन्ध में विचार करके अपनी आत्मा के द्वारा सत्य का अन्वेषण करे और समस्त जीवों से मित्रता का सम्बन्ध रखे।
टीका—इस सूत्र में इस बात का दिग्दर्शन कराया गया है कि विद्वान् पुरुष को सबसे प्रथम इस बात का विचार करना चाहिए कि संसार में समस्त दुखों का मूल कारण अविद्या है। जो विद्या-रहित पुरुष हैं वे ही सब प्रकार के दुखों के पात्र बनते हैं और वे ही संसार में सबसे अधिक दुखों से पीड़ित होते हैं, अतः संसार में जीव को पुत्र-कलत्रादि पर जो अत्यन्त मोह है उसके कारण से ही पाशरूप
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 231 / खुड्डागनियंठिज्जं छठें अज्झयणं