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टीका – यह एक स्वाभाविक सी बात है कि जब मृत्यु का समय अत्यन्त निकट आ जाता है तब मन, वचन और काया के योग प्रायः निर्बल हो जाते हैं। इस प्रकार जब कि कषाय शान्त हो गए हों और मृत्यु का समय बिल्कुल निकट आ गया हो तब बुद्धिमान पुरुष अपने गुरुजनों के समीप जाकर और रोमांचकारी मृत्यु के भय को अपने हृदय से सर्वथा दूर करके, अर्थात् अणुमात्र भी मृत्यु के भय को अपने हृदय में स्थान न देकर अनशन के द्वारा प्रसन्नता - पूर्वक अपने शरीर का त्याग करने की आकांक्षा करे, यह उसका सर्वोपरि अन्तिम कर्त्तव्य है ।
तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार दीक्षा ग्रहण के समय उसके आत्मा में आनन्द, उत्साह और हर्ष का उद्रेक था, उसी प्रकार मृत्यु के समय भी उसके मन में पूर्ण प्रसन्नता, पूर्ण हर्ष और पूर्ण उत्साह होना चाहिए और समुचित अनशन के द्वारा ही इस शरीर का प्रसन्नता पूर्वक अन्त होना चाहिए, यह धारणा उसकी बराबर रहनी चाहिए । परन्तु इसमें इतना ध्यान अवश्य रहे कि इस शरीर का वियोग अनशन व्रत के द्वारा हो यह भावना तो स्तुत्य है, किन्तु मृत्यु की इच्छा कभी न करनी चाहिए और न ही 'क्या मैं मर जाऊंगा, और सचमुच इस शरीर को छोड़ जाऊंगा', इत्यादि प्रकार के सकाम-मृत्यु के साथ प्रतिकूलता रखने वाले विचारों को अपने हृदय में कभी स्थान न देना चाहिए ।
इस सारे विवेचन का सारांश इतना ही है कि मृत्यु का समय निकट आ गया जानकर, उसके भय का सर्वथा परित्याग करके, उसके स्वागत के लिए सहर्ष प्रस्तुत हो जाना चाहिए और अनशन व्रत के द्वारा ही 'यदि इस क्षण - विनश्वर शरीर का अन्त होना है तो यह बड़े सौभाग्य की बात है', इत्यादि भावना से बुद्धिमान् पुरुष सकाम-मृत्यु को प्राप्त करे ।
अब इस अध्ययन का उपसंहार करते हैं—
अह कालम्मि संपत्ते, आघायाय समुस्सयं । सकाममरणं मरई, तिण्हमन्नयरं मुणी ॥ ३२ ॥ त्ति बेमि ।
इति अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ ५ ॥ अथ काले संप्राप्ते, आघातयन् समुच्छ्रयम् । सकाममरणेन म्रियते, त्रयाणामन्यतरेण मुनिः ॥ ३२ ॥ इति ब्रवीमि ।
इति अकाममरणीयं पंचममध्ययनं सम्पूर्णम् || ५ ||
पदार्थान्वयः – अह —— अथ, कालम्मि — काल के, संपत्ते - प्राप्त होने पर, आघायाय - संलेखना आदि के द्वारा विनाश करता हुआ, समुस्सयं — आभ्यन्तरिक और बाह्य शरीर का, सकाममरणं—– सकाम मृत्यु से, मरई – मरे, किन्तु, तिन्हं – तीन प्रकार की मृत्युओं में से,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 228
'अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं