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________________ टीका - इस गाथा में मेधावी पुरुष को अकाम और सकाम मृत्यु के फल का विचार करके इन दो में से जो विशेष फल के देने वाली है उसे ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है, इसलिए मेधावी पुरुष को चाहिए कि वह क्षमा, मार्दवादि गुणों से दया-धर्म को परिवर्द्धित करके और स्वयं कषायमुक्त होकर अपनी आत्मा को सदा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करे। यहां पर दया-धर्म से साधु-धर्म की सूचना दी गई है और उस साधु-धर्म के पोषक क्षांत्यादि गुण हैं, उनके द्वारा ही आत्मा में प्रसन्नता और निराकुलता का आविर्भाव होता है और अन्त में वही निराकुलता पंडित - मृत्यु का कारण बनती है। आत्मा में क्षोभ और आकुलता पैदा करने वाले कषायों का जब तक समूलोन्मूलन नहीं होता, तब तक आत्मा में प्रसन्नता का होना अत्यन्त कठिन है और कषायों के समूल घात के लिए क्षमा आदि दशविध यति-धर्मों के आराधन की आवश्यकता है, क्योंकि दया-धर्म का पोषण इसके बिना कदापि नहीं हो सकता एवं धर्म के पुष्ट हुए बिना मृत्यु के भय से छुटकारा नहीं मिल सकता । अतः विचारशील पुरुष को काम-मृत्यु की प्राप्ति के कारणभूत इन उक्त उपायों का अवश्य अवलम्बन करना चाहिए, जिससे कि वह अपने आत्मा में पूर्ण प्रसन्नता का सम्पादन करके सकाम - मृत्यु को प्राप्त कर सके। इसके अतिरिक्त अकाम और सकाम मृत्यु में हेय और उपादेय कौन है, इसका निर्णय तो बुद्धिमान के लिए बहुत ही सुकर है, क्योंकि दोनों के ही कटु और मधुर फल उसके सामने उपस्थित हैं, अर्थात् अकाम-मृत्यु के फल विशेष में जो कटुता है और सकाम - मृत्यु के फल में जो माधुर्य है वह भी उसके सामने ही है। इसलिए दोनों की तुलना करना बहुत ही सरल है । अन्त में शास्त्रकारों की सम्मति का पर्यालोचन करते हुए यही कहना अथवा • मानना पड़ता है कि क्षमा आदि गुणों के सम्पादन से आत्मा में धर्माभिरुचि और निष्कषायता प्राप्त करने वाला मेधावी पुरुष सकाम-मृत्यु की प्राप्ति में निःसन्देह सिद्धहस्त हो जाता है । इसके अनन्तर उस प्रसन्नात्मा का जो कर्त्तव्य है अब उसके विषय में कहते हैंतओ काले अभिप्पेए, सड्ढी तालिसमन्तिए । विणएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए ॥ ३१ ॥ ततः कालेऽभिप्रेते, श्रद्धी तादृशमन्तिके । विनयेल्लोमहर्षं, भेदं देहस्य कांक्षेत् ॥ ३१ ॥ पदार्थान्वयः—–—तओ——– तदनन्तर, काले — मरणकाल के, अभिप्पेए – प्राप्त होने पर, सड्ढी—– श्रद्धावान्, तालिसं—– तादृश, अंतिए — गुरु के समीप में रहकर, विणएज्ज - दूर करे, लोमहरिसं --- रोमांच को, देहस्स– शरीर के, भेयं-भेद अर्थात् त्याग को, कंखए- चाहे, अनशन के द्वारा । मूलार्थ ——– तदनन्तर श्रद्धावान् पुरुष मृत्यु- समय के प्राप्त होने पर अपने गुरुजनों के समीप रोमांचकारी मृत्यु भय को दूर करके अनशन के द्वारा अपने शरीर के त्याग की इच्छा करे । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 227 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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