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जितेन्द्रिय और चारित्र-युक्त बहुश्रुत पुरुष अकाम और सकाम मृत्यु के स्वरूप को सुनकर मृत्यु से कभी संत्रस्त नहीं होते।
टीका—इस गाथा का ध्यान पूर्वक मनन करने से इसके दो अर्थ प्रतीत होते हैं—एक तो 'तेसिं' आदि पदों को यथावस्थित रूप में षष्ठ्यन्त मानकर और दूसरा इन पदों को 'विभक्ति-विप्रत्ययात्' के व्यापक नियम से प्रथमान्त मानकर होता है। दोनों ही अर्थ मूलार्थ में बता दिए गए हैं, परन्तु इन दोनों में पहला अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो जीव सकाम-मृत्यु को प्राप्त करने वाले, संयम-शील, आत्म-निग्रही हैं—अतएव परम-पूजनीय महापुरुषों के स्वरूप को सुन लेता है वह मृत्यु से कभी भयभीत नहीं होता। जैसे स्वनामधन्य गजसुकुमाल के जीवन को सुनकर मृत्यु का भय दूर हो जाता है, क्योंकि मृत्यु का भय तो उन्हीं को होता है, जिन्होंने पहले अधर्म से सम्बन्ध रखा हो, जिनका केवल धर्म से ही सम्बन्ध रहा है उनके लिए तो यह मृत्यु त्रास के बदले आनन्द ही देने वाली होती है।
इतना और भी जान लेना चाहिए कि उन पूजनीय साधु पुरुषों के जीवन को सुनकर भी वे ही जीव मृत्यु के भय से सर्वथा रहित हो सकते हैं जो कि चारित्रवान् और बहुश्रुत हैं, सर्वसाधारण नहीं। शीलयुक्त और बहुश्रुत इन दो पदों का एक साथ प्रयोग इसलिए भी सूत्रकार ने किया है कि केवल चारित्र या केवल ज्ञान ही साध्य की सिद्धि का हेतु नहीं हो सकता, किन्तु ज्ञान और चारित्र इन दो का समुच्चय ही मोक्ष प्राप्ति का हेतु है, यह प्रमाणित हो सके। वास्तव में वे ही त्यागशील महापुरुष सदा स्मरणीय और वन्दनीय हैं जिनको ज्ञान और चारित्र के बल से मृत्यु का भय बिल्कुल नहीं रहता तथा जिनके जीवन में यह सामर्थ्य भी है कि वे उसके सुनने वालों को मृत्यु के भय से सुरक्षित रख सकते हैं। इस सारे वक्तव्य को सुनकर बुद्धिमान् का जो कर्तव्य है अब उसके सम्बन्ध में कहते हैं
तुलिया विसेसमादाय, दयाधम्मस्स खंतिए । विप्पसीएज्ज मेहावी, तहाभूएण अप्पणा ॥ ३० ॥
तोलयित्वा विशेषमादाय, दयाधर्मस्य क्षान्त्या |
विप्रसीदेन्मेधावी, तथाभूतेनात्मना ॥ ३० ॥ .. पदार्थान्वयः-तुलिया-तोल करके, विसेसं—विशेष को, आदाय—ग्रहण करके तथा, दयाधम्मस्स—दयाधर्म को, खंतिए—क्षमा से बढ़ा करके, विप्पसीएज्ज–प्रसन्न करे, मेहावी-बुद्धिमान्, तहाभूएण-तथाभूत, अप्पणा—आत्मा से ।
मूलार्थ—अकाम और सकाम इन दोनों मृत्युओं को तोलकर इन दो में से विशेष को ग्रहण करके और क्षमा के द्वारा दया-धर्म को बढ़ाकर मेधावी अर्थात् बुद्धिमान तथाभूत आत्मा से अपनी आत्मा को प्रसन्न करे।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 226 / अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयणं
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