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________________ जीव साधु हों अथवा गृहस्थ, परन्तु उनमें जो साधक क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों से रहित हैं, अर्थात् जिन आत्माओं के कषाय शान्त हो गए हैं वे ही आत्मा उक्त स्वर्गादि स्थानों को प्राप्त करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि कषाय - युक्त आत्मा चाहे साधु के वेष में हो और चाहे गृहस्थ के वेष में, उसको स्वर्गादि की प्राप्ति नहीं हो सकती । कषाय- मुक्त आत्मा साधु रूप में हो अथवा गृहस्थ की दशा में हो, ऐसी आत्मा संयम और तप के द्वारा स्वर्गादि स्थानों को अवश्य प्राप्त कर लेती है, इसलिए स्वर्गादि स्थानों की प्राप्ति का हेतु जीव का किसी प्रकार का बाह्य चिह्न विशेष नहीं है, किन्तु सत्रह प्रकार का संयम और बारह प्रकार का तप जो शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है उसका सम्यग् अनुष्ठान और क्रोधादि चतुर्विध कषायों से मुक्त होना ही उक्त स्वर्गादि शुभ स्थानों की प्राप्ति का मुख्य हेतु है, यह बात भली- भान्ति सिद्ध हो चुकी है। यदि प्रकारान्तर से कहें तो यह कह सकते हैं कि स्वर्गादि फल की हेतुभूत जो पण्डित - मृत्यु है उसकी प्राप्ति उन्हीं आत्माओं को होती है जो कि प्रशान्त और कषाय-मुक्त आत्मा हैं, अर्थात् जो शुद्ध आचार रखने वाले और सदा निवृत्ति- परायण हैं । इसके विपरीत जिन जीवों ने इन उक्त पवित्र आचारों से मुख मोड़ा हुआ है, उनके लिए इस पवित्र मृत्यु का प्राप्त होना प्रायः असम्भव सा ही है, अतः विचारशील पुरुषों को सदाचार के सेवन से कभी भी विमुख नहीं होना चाहिए । यहां पर मूल गाथा में आए हुए 'भिक्खाए' शब्द का संस्कृत प्रतिरूप 'भिक्षादा: ' है जिसका अर्थ 'भिक्षामदन्ति इति भिक्षादा:' इस व्युत्पत्ति के द्वारा 'केवल भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाले' है। इसका पर्यायवाची शब्द भिक्षु या साधु है, तब इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो आरम्भ और परिग्रह का त्यागी बनकर केवल शुद्ध भिक्षावृत्ति से जीवन का निर्वाह करे उसे भिक्षु या भिक्षाद कहते हैं और जो घर में रहकर अपने परिश्रम से न्यायोपार्जित जीविका द्वारा जीवन निर्वाह करता है उसे गृहस्थ कहते हैं । अब शास्त्रकार कुछ अन्य उपयोगी बातों का वर्णन करते हैंतेसिं सोच्चा सपुण्णाणं, संजयाणं वसीमओ । न संतसंति मरणंते, सीलवन्ता बहुस्सुया || २६॥ तेषां श्रुत्वा सपुण्यानां संयतानां वश्यवताम् । न संत्रस्यन्ति मरणान्ते, शीलवन्तो बहुश्रुताः ॥ २६॥ पदार्थान्वयः –—–— तेसिं—–उन, सपुण्णाणं – पुण्यवान्, संजयाणं- संयतों, वुसीमओ - इन्द्रियों को वश में करने वालों के स्वरूप को, सोच्चा - सुन करके, मरणंते — मृत्यु के समीप आने पर, न संतसंति- त्रास नहीं पाते, सीलवंता — चारित्र - युक्त और, बहुस्सुया — बहुश्रुत । मूलार्थ -- उन परम पूजनीय संयमशील जितेन्द्रिय पुरुषों के स्वरूप को सुन करके चारित्र - युक्त बहुश्रुत जीव मृत्यु के आने पर कभी त्रास को प्राप्त नहीं होते, अथवा वे पूजनीय, संयमशील, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 225 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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