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________________ पदार्थान्वयः-दीहाउया दीर्घायु वाले, इड्डिमंता—ऋद्धि वाले, समिद्धा-समृद्धि वाले, कामरूविणो—इच्छानुकूल वैक्रिय करने वाले, अहुणोववन्नसंकासा तत्काल उत्पन्न हुए देव के समान और, भुज्जो बहुत, अच्चिमालिप्पभा–सूर्यों की तरह प्रभाव वाले हैं। ___ मूलार्थ—उन विमानों में उत्पन्न होने वाले देव दीर्घायु वाले, ऋद्धि एवं समृद्धि वाले और इच्छानुकूल वैक्रिय करने वाले होते हैं तथा तत्काल उत्पन्न हुए देव के समान और बहुत से सूर्यों के तुल्य उनकी कांति होती है। __टीका—जो जीव पंडित-मृत्यु को प्राप्त होकर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्कृष्ट आयु ३३ सागरोपम को होती है, जो कल्पोपन्न देव हैं वे रत्नादि ऋद्धियों से युक्त अति तेजस्वी, एवं इच्छानुसार वैक्रिय की शक्ति से सम्पन्न होते हैं । ___ यद्यपि अनुत्तर-विमानवासी देवता वैक्रियरूप धारण नहीं करते, तथापि यह शक्ति उनमें सदैव विद्यमान रहती है। तत्काल के उत्पन्न हुए देव की ज्योति बहुत अधिक प्रचण्ड होती है, वैसी ही ज्योति इन देवों की आयुपर्यन्त रहती है। यह भी कहा जा सकता है कि वे ३३ सागरोपम की आयु भोगते हुए भी कभी वृद्ध नहीं होते, उनमें सर्वदा बचपन सा उल्लास बना रहता है। . ___ इन देवों की शारीरिक कान्ति भी अनेक सूर्यों की प्रभा के समान अधिक प्रकाश युक्त होती है। यह सब कुछ सकाम-मृत्यु का फल वर्णन किया गया है। वृत्तिकार ने यहां पर २३वीं और २७वीं गाथा को युग्म मानकर और दीपिकाकार ने इन दो के साथ तीसरी २८वीं गाथा को मिलाकर 'कुलक' के रूप में इनकी व्याख्या की है, क्योंकि इनका सम्बन्ध आपस में मिलता है। अब इस विषय का उपसंहार करते हैं ताणि ठाणाणि गच्छन्ति, सिक्खित्ता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे सन्ति परिनिव्वुडा ॥२८॥ तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः । भिक्षादा वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिर्वताः ॥ २८॥ पदार्थान्वयः–ताणि-उन, ठाणाणि स्थानों को, गच्छंति—जाते हैं, सिक्खित्ता अभ्यास करके, संजमं—संयम, तवं तप का, भिक्खाए–साधु, वा—अथवा, गिहत्थे—गृहस्थ, वा—समुच्चय अर्थ में, जे–जो, परिनिव्वुडा–कषायों से रहित, संति हैं। मूलार्थ—पूर्वोक्त स्थानों को वे ही साधु अथवा गृहस्थ प्राप्त होते हैं जो कि संयम और तप के अभ्यास से कषायों से रहित हो गए हैं, अर्थात्, जिनमें काम-क्रोध आदि कषाय विद्यमान नहीं रहे। टीका–संयम और तप का निरन्तर अभ्यास करके मोक्ष और स्वर्ग आदि स्थानों में जाने वाले श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 224 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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