________________
उत्तराई विमोहाई, जुइमन्ताऽणुपुव्वसो 1 “समाइण्णाइं जक्खेहिं, आवासाइं जसंसिणो ॥ २६॥ उत्तरा विमोहाः, तिमन्तोऽनुपूर्वशः I समाकीर्णा यक्षैः, आवासा यशस्विनः || २६ ॥ पदार्थान्वयः—उत्तराइं—प्रधान से प्रधान, विमोहाई — मोह से रहित, जुइमंता – ज्योति अर्थात् प्रकाश वाले, अणुपुव्वसो – अनुक्रम से, समाइण्णाई — व्याप्त हुए, जक्खेहिं—देवों से, आवासाइं— विमान, जसंसिणो –— यश वाले ।
मूलार्थ-देवलोक, देवता और उनसे भरे हुए विमान अनुक्रम से उत्तरोत्तर एक दूसरे की अपेक्षा अधिक प्रकाश वाले, अधिक यश वाले और स्वल्प मोह वाले होते हैं ।
टीका – एक देवलोक से दूसरा देवलोक उत्तर अर्थात् प्रधान है, अतः प्रथम देवलोक से लेकर अनुत्तर विमानों पर्यन्त एक की अपेक्षा दूसरा प्रधान है और अनुत्तर विमानों में निवास करने वाले देवगण मोह-रहित कहे जाते हैं, क्योंकि उनमें उपशमवेद होता है, इसीलिए उनको 'विमोह' कहा गया है। उनके विमान भी अनुक्रम से अधिक प्रकाश वाले और अधिक यश वाले हैं तथा देवों से आकीर्ण अर्थात् भरे हुए हैं।
यहां पर इतना और समझ लेना चाहिए कि पहले देवलोक से लेकर अनुत्तर - विमानों तक एक विमान से दूसरे विमान अधिक ज्योति वाले अर्थात् प्रकाश वाले होते हैं और उनमें जिन देवों का निवास होता है वे देव भी उत्तरोत्तर अधिक यश और प्रकाश वाले होते हैं।
यद्यपि सूत्र में केवल आवास शब्द का ही उल्लेख है, परन्तु देवों के आश्रयभूत होने से उनका 'विमान' अर्थ मानना ही समीचीन प्रतीत होता है ।
यश शब्द का कहीं-कहीं पर संयम अर्थ भी होता है । तब यहां पर आए 'यश' शब्द का संयम अर्थ करने पर यह फलित निकलता है कि जिस जीव ने पूर्व जन्म में जिस प्रकार के संयम का पालन किया है उसके अनुसार वह उसी प्रकार के यश और प्रकाश वाले देव - विमान में उत्पन्न होता है । सराग तप और संयम का यही अभिप्राय है ।
इन देव-विमानों में उन देवों का कितने समय तक निवास रह सकता है, अब इस विषय में
कहते हैं—
दीहाउया इड्डिमन्ता, समिद्धा कामरूविणो । अहुणोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ॥ २७ ॥ दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः । अधुनोपपन्नसंकाशाः, भूयोऽर्चिमालिप्रभाः ॥ २७ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 223 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं