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________________ बाल-पंडित कहा गया है। उसके कुछ तो त्याग - प्रत्याख्यान होते हैं और कुछ नहीं होते। इसलिए वह बाल-पंडित कहलाता है। उसको जिस मृत्यु की प्राप्ति होती है उसका नाम बाल - पंडित मृत्यु है । अब केवल पंडित मृत्यु के फल विशेष के सम्बन्ध में कहते हैंअह जे संवुडे भिक्खू, दोण्हमन्नयरे सिया । सव्वदुक्खप्पहीणे वा, देवे वावि महिड्दिए ॥ २५ ॥ अथ य संवृतो भिक्षुः द्वयोरन्यतरः स्यात् । सर्वदुःखप्रहीणो वा, देवो वाऽपि महर्द्धिकः ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः—अह—अथ, जे – जो, संवुडे - संवर वाला, भिक्खू – साधु है, वह, दोपहं—–— दोनों में से, अन्नयरे—कोई एक, सिया — हो तो, सव्वदुक्खप्पहीणे - सर्व दुःख रहित सिद्ध होता है, वा—अथवा, महिड्डिए—–महाऋद्धि वाला, देवे – देव होता है। यहां पर 'वा' समुच्चय अर्थ में और 'वि' 'संभावना' के अर्थ में है । मूलार्थ — संवृत अर्थात् संवर-युक्त साधु दो गतियों में से एक गति को अवश्य प्राप्त करता है, 'यदि उसके सभी कर्म क्षय हो गए हैं तब तो वह सिद्ध हो जाता है, अन्यथा महाऋद्धि वाला देव बनता है । टीका - इस गाथा में पंडित - मृत्यु के दो फल बताए गए हैं - एक मोक्ष और दूसरा स्वर्ग । यदि आश्रवों के निरोध करने वाले संवृत अर्थात् संवर युक्त भिक्षु के इष्ट-अनिष्ट आदि समस्त कर्म: प्रक्षीण हो गए हैं तब तो वह सिद्ध अर्थात् मोक्ष गति को प्राप्त हो जाता है और यदि कर्म अभी कुछ शेष हैं, तब वह महान् समृद्धि वाला देव बनता है । इसलिए संयमशील आत्मा को इन उक्त दो मोक्ष और स्वर्ग गतियों में से एक गति की प्राप्ति अवश्य होती है । इस गाथा में जो 'दुक्ख' शब्द का प्रयोग किया गया है उसका अभिप्राय यह है कि यावन्मात्र कर्म हैं वे सब वास्तव में दुख रूप ही हैं, अतः उन कर्मों से सर्वथा छूटना ही सर्व - दुख प्रक्षीणता है। तात्पर्य यह कि दुखक्षय और कर्मक्षय ये दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं। तब इस सारे विवेचन का सारांश यह निकला कि सकाम-मृत्यु के स्वर्ग और मोक्ष ये दो सर्वोत्तम फल हैं जो कि मनुष्य जीवन के मुख्य साध्य हैं, इसलिए विचारशील पुरुषों को इनकी प्राप्ति के जो-जो साधन हैं, उनको प्राप्त करने के लिए अधिक-से-अधिक यत्न करना चाहिए। सकाम-मृत्यु प्राप्त करने वाले जीव के कुछ कर्म शेष रह जाने के कारण मोक्ष के बदले उसे देवलोक की उत्कृष्ट ऋद्धि प्राप्त होती है, अर्थात् देवलोक में वह अन्य देवों की अपेक्षा बड़ी भारी समृद्धि वाला देव होता है, इस बात की चर्चा ऊपर की गाथा में की जा चुकी है। अब इस गाथा में देवों के प्रासाद, भोग-सामग्री और उनके निवास आदि के विषय में कहते हैं— श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 222 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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