________________
सूत्र में सामायिक के अंगों से पृथक् करके जो पौषध का कथन किया है वह पौषधव्रत में अधिक आदर रखने के लिए किया है।
काया से स्पर्श करने का तात्पर्य यह है कि केवल वचनमात्र से ही नहीं, किन्तु शरीर से भी ... इनका सेवन करे ।
पौषध का व्युत्पत्ति - लभ्य अर्थ यह है कि 'पोषणं पोषोऽर्थाद् धर्मस्य, तं धत्ते इति पौषधम् ' जो धर्म का पोषण करे अथवा जिस व्रत के द्वारा धर्म का पोषण किया जाए, उसे पौषध कहते हैं । गृहस्थों को एक मास में दो पौषध तो अवश्य करने चाहिएं। यदि दो न हो सकें तो एक तो अवश्यमेव करें।
अब निम्नलिखित गाथा में प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हैंएवं सिक्खासमावन्ने, गिहवासे वि सुव्वए । मुच्चई छविपव्वाओ, गच्छे जक्ख- सलोगयं ॥ २४॥ एवं शिक्षासमापन्नः, गृहवासेऽपि सुव्रतः । मुच्यते छविपर्वाद्, गच्छेद् यक्ष-सलोकताम् ॥ २४ ॥
पदार्थान्वयः – एवं — इस प्रकार, सिक्खासमावन्ने — शिक्षा - संयुक्त, गिहवासे—– गृहस्थवास में, वि - भी, सुव्व – सुन्दर व्रतों वाला, मुच्चई — मुक्त हो जाता है, छवि-त्व, पव्वाओ – पर्व से फिर वह, जक्ख-यक्षों के, देवों के, सलोगयं—लोक को, गच्छे—जाता है ।
मूलार्थ - इस प्रकार शिक्षा - युक्त सुव्रती जीव गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी इस औदारिक शरीर को छोड़कर देवलोंकों में जाता है ।
टीका - इस गाथा में पवित्र आचार रखने वाले गृहस्थ को भी स्वर्ग की प्राप्ति का होना बताया गया है, अर्थात् गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी प्राणी अपने अधिकार के अनुसार यदि यथाशक्ति धर्म का सम्यगु आराधन करे तो उस के लिए भी स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। वह अपने उद्योग से इस औदारिक शरीर को छोड़कर स्वर्गीय दिव्य शरीर को प्राप्त करके स्वर्ग के सुखों को पूर्णतया भोग सक़ता है, इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि अणुव्रत और शिक्षाव्रतों से युक्त धर्मसेवी पुरुष घर में रहता हुआ भी इस औदारिक शरीर को छोड़कर देवलोकों को प्राप्त हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त गाथा में आए हुए 'छवि' पद का अर्थ शरीर की त्वचा और 'पर्व' का अर्थ कर्पूर आदि शरीर के सन्धि-स्थान हैं । इस प्रकार के औदारिक शरीर का त्याग करके स्वर्गीय दिव्य शरीर की प्राप्ति का व्रतशील गृहस्थ के लिए उल्लेख किया गया है, अतः धर्मात्मा सद्गृहस्थों का कर्त्तव्य है कि वे इस देव - दुर्लभ मानव-भव को प्राप्त करके अपने आचार - नियमों के पालन में सदा सावधान रहने का प्रयत्न करते रहें। यहां पर इतना और भी स्मरण रहे कि शास्त्रकार गृहस्थ के व्रतों के वर्णन में प्रसंग प्राप्त बाल - पंडित - मृत्यु की भी चर्चा कर दी है, क्योंकि शास्त्रों में गृहस्थ को श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 221 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं