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पदार्थान्वयः–व–अप्यर्थक है, पिंडोलए घर-घर से भिक्षा मांगकर जीवन व्यतीत करने वाला, दुस्सीले दुराचारी, नरगाओ-नरक से, न मुच्चई नहीं छूटता, भिक्खाए-भिक्षा से जीवन व्यतीत करने वाला यति, वा—अथवा, गिहत्थे—गृहस्थ, वा–परस्पर अपेक्षा अर्थ में है जो, सुव्वए—सुन्दर व्रत वाला है वह, दिवं स्वर्ग को, कम्मई-जाता है।
मूलार्थ पिंडावलग अर्थात् भिक्षु होते हुए भी यदि वह दुराचारी है तो वह नरक से मुक्त नहीं हो सकता, अतः भिक्षु हो या गृहस्थ जो इनमें सुन्दर व्रत वाला है वही स्वर्ग को प्राप्त करता है।
___टीका—घर-घर से भिक्षा मांगकर खाने वाला, उसी से अपना जीवन व्यतीत करने वाला भ्रष्टाचारी व्यक्ति नरक से कभी नहीं छूट सकता, क्योंकि नरक और स्वर्ग की प्राप्ति व्यक्ति के अशुद्ध एवं शुद्ध आचरणों की अपेक्षा रखती है, इसलिए चाहे भिक्षु हो अथवा गृहस्थ हो, जिसके चारित्र में विशुद्धि है, वही स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। इसका स्पष्ट भाव यह है कि जिसके नियम-व्रत और प्रत्याख्यान आदि आचार श्रेष्ठ हों, जो सदैव काल आत्म-शुद्धि की ओर झुका रहता हो, वही जीव सुगति को प्राप्त हो सकता है, फिर वह चाहे गृहस्थ के वेष में हो अथवा भिक्षु का वेष धारण किए हुए हो । तात्पर्य यह कि सुगति की प्राप्ति श्रेष्ठ आचार पर ही अवलम्बित है, किसी बाह्य क्रिया-काण्ड या वेष पर नहीं। ___ अब शास्त्रकार गृहस्थ के उन आचार-नियमों का उल्लेख करते हैं जिनके अनुष्ठान से वह स्वर्ग को प्राप्त करता है।
अगारि-सामाइयंगाई, सड्ढी काएण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं, एगरायं न हावए ॥ २३ ॥
अगारि-सामायिकांगानि, श्रद्धी कायेन स्पृशति |
पौषधं द्वयोः पक्षयोः, एकरात्रं न हापयेत् || २३ ॥ पदार्थान्वयः—अगारि-गृहस्थ, सामाइयंगाई–सामायिक के अंगों को, सड्ढी श्रद्धावान्, काएण—काया से, फासए–सेवन करे, पोसहं—पौषध, दुहओ—दोनों, पक्खं पक्षों में, एगरायं—एक रात्रि, न हावए-हीन न करे (एक रात्रि का. संवर तो अवश्य करे)।
मूलार्थ श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के सभी अंगों का सेवन करे, प्रत्येक महीने के दोनों पक्षों में पौषध करे, परन्तु एक अहोरात्र भी हीन न करे।
टीका—गृहस्थों की सामायिक तीन प्रकार की प्रतिपादित की गई है, जैसे कि सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत-सामायिक और देशव्रत-सामायिक। नि-शंकभाव, स्वाध्याय और अणुव्रत—ये तीन अगारि सामायिक के अंग हैं। श्रद्धावान् गृहस्थ इनको अवश्य ग्रहण करे। साथ ही दोनों पक्षों में पौषध-व्रत भी धारण करे। यदि कारणवशात् पौषध-व्रत न भी हो सके, तो एक मास में एक रात्रि भर धर्म-जागरण अवश्यमेव करे।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 220 / अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयणं
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