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मूलार्थ—जिस जीव ने पाखण्ड-युक्त प्रव्रज्या ग्रहण की हुई है, उसके वस्त्र, मृगचर्म, नग्नता, जटाधारी होना, केवल गुदड़ी रखना और सिर मुंडाकर रहना इत्यादि नानाविध वेष उसकी कभी रक्षा नहीं कर सकते। ___टीका—प्रस्तुत गाथा में इस बात का बड़ा ही सुन्दर और मार्मिक विवेचन किया गया है कि कोई भी नया या पुराना मत या सम्प्रदाय क्यों न हो, परन्तु उस सम्प्रदाय के नियमानुकूल केवल वेष-मात्र के धारण करने से किसी जीव का कभी कल्याण नहीं हो सकता। संसार में अनेक मत व सम्प्रदाय प्रचलित हैं और उनमें दीक्षित होने वाले साधुओं के वेष भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे कुछ कषाय वस्त्र को धारण करते हैं, कुछ मृग-चर्म पहने रहते हैं तथा कुछ पुराने कपड़ों की गुदड़ी ओढ़े रहते हैं एवं अनेक साधु सर्वथा नग्न ही फिरते हैं, बहुत से जटा धारण कर लेते हैं और बहुत से बिल्कुल सिर मुंडा लिया करते हैं, इत्यादि। जितने भी वेष हैं, जितने भी साधुपन के चिह्न हैं, इनसे अमुक सम्प्रदाय या मत की पहचान किसी प्रकार से भले ही हो जाए, किन्तु इन नाना प्रकार के स्वांगों का आत्मा के उद्धार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। जो व्यक्ति पाखण्ड-युक्त प्रव्रज्या को धारण किए हुए हैं, अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से ग्रसे हुए हैं, उनका इन उक्त प्रकार के नानाविध वेषों से उद्धार समझना केवल मूर्खता ही कही जा सकती है, इसलिए केवल वेष-मात्र से आत्मा का कभी उद्धार नहीं हो सकता। ____ आत्मा को दुर्गति से बचाकर सद्गति में पहुंचाने वाला साधक का अन्तरंग शुद्ध आचार ही है। सदाचार या भाव-संयम की प्राप्ति से ही आत्मा का उद्धार सम्भव है। . यदि कोई व्यक्ति प्रसिद्ध से प्रसिद्ध सम्प्रदाय में दीक्षित होने के बाद उस सम्प्रदाय के साधुवेष से अपने आपको अच्छी तरह से सजा लेता है, परन्तु विषयासक्त प्रकृति में अन्तर नहीं आने देता तो उसका उद्धार ये विविध वेष सहस्रों जन्मों में भी नहीं कर सकते, प्रत्युत इसके समान आत्म-वंचना का और कोई भी उदाहरण नहीं माना जा सकता। इसलिए जो जीव अपनी आत्मा का वास्तविक उद्धार करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे इस द्रव्य-लिंग के व्यामोह में न पड़ते हुए अपनी आत्मा को भावचारित्र से भावित करके वीतरागता की प्राप्ति के लिए ही भगीरथ प्रयत्न करें।
उक्त गाथा में 'परियाय-गयं' के स्थान पर 'परियागयं' प्रयोग में 'य' का लोप आर्षवत् समझना चाहिए। अब इसी विषय में कुछ और जानने योग्य बातें कहते हैं- पिंडोलए व दुस्सीले, नरगाओ न मुच्चई । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कम्मई दिवं ॥ २२ ॥
पिण्डावलगोवा दुःशीलो, नरकान्न मुच्यते । भिक्षादो वा गृहस्थो वा, सुव्रतः क्रामति दिवम् || २२ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 219 / अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयणं