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पदार्थान्वयः—एगेहिं—एक, भिक्खूहिं—भिक्षुओं से, गारत्था—गृहस्थ लोग, संजमुत्तरा–संयम में प्रधान, सन्ति हैं, य—और, सव्वेहिं—सब, गारत्थेहिं—गृहस्थों से, साहवों—साधु, संजमुत्तरा—संयम में प्रधान हैं।
मूलार्थ कुछ साधुओं से तो गृहस्थों का संयम भी अच्छा होता है और सब गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है।
___टीका—उन कुतीर्थी, भग्नव्रती और निन्हवादि साधुओं की अपेक्षा व्रत-नियमादि का पालन करने वाले गृहस्थों को इसलिए श्रेष्ठ कहा गया है कि कुतीर्थियों में तो चारित्र के अभाव से संयम का होना असम्भव है और भग्नव्रती तथा निवादि चारित्र के विराधक होते हैं, अतः उनमें भी संयम नहीं हो सकता, अतः उनकी अपेक्षा देश-चारित्र की आराधना करने वाले गृहस्थों के संयम को अवश्य श्रेष्ठ मानना पड़ेगा।
जो सर्वविरति साधु हैं उनका संयम इन देशविरति साधकों से भी श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उनमें द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से चारित्र की उच्चता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि चारित्र की न्यूनाधिकता चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षय वा क्षयोपशम पर अवलम्बित है, सो जितना-जितना उक्त कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम होता है. उतनी-उतनी ही देशवत या सर्ववत के रूप में धर्म की प्राप्ति अधिक होती जाती है, इसलिए गृहस्थ धर्म पर चलने वाले जीवों की अपेक्षा साधुवृत्ति में आरूढ़ होने वाले जीवों में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का अधिक क्षय होने से उनकी अपेक्षा वे अधिक चारित्रवान् माने जाते हैं, क्योंकि इन साधुओं में सर्वत्याग है और उन गृहस्थों में आंशिक त्याग है। यदि इस सारे कथन का वास्तविक रूप में सारांश निकाला जाए तो यह है कि जिस जीव का चारित्र सम्यक्त्व को लिए हुए है, वही प्रधान है और सम्यक्त्व-रहित द्रव्य साधु प्रधानता प्राप्त करने के योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त जिन जीवों में दर्शन और चारित्र दोनों का ही अभाव है वे तो अपने को साधु कहाते हुए भी वास्तव में धर्म-पथ से बिल्कुल विमुख होते हैं। ऐसे जीवों की अपेक्षा तो आदर्श गृहस्थों का जीवन अधिक श्रेष्ठ होता है। अब इसी विषय को शास्त्रकार कुछ अधिक स्पष्ट शब्दों में कहते हैं
चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडि मुण्डिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥२१॥
चीराजिनं नाग्न्यं, जटित्वं संघाटी मुण्डत्वम् ।
____एतान्यपि न त्रायन्ते, दुःशीलं पर्यायागतम् ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-चीराजिणं वस्त्र और मृग-चर्म, नगिणिणं—नग्न होना, जडी–जटाधारी, संघाडि-गुदड़ी, मुंडिणं शिर से मुंडित होना, एयाणि वि—ये सब नानाविध वेष भी, न तायंति-रक्षक नहीं होते, दुस्सीलं—दुष्टाचारी, परियागयं—प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले को।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 218 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं