SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ मूलार्थ—यह सकाम-मृत्यु सभी भिक्षुओं को प्राप्त नहीं होती और न ही सभी गृहस्थों को प्राप्त होती है, क्योंकि नाना प्रकार के नियमों वाले गृहस्थ हैं और उनसे विशेष आचार वाले भिक्षु हैं। टीका इस गाथा में पंडित-मृत्यु के अधिकारियों का विवेचन किया गया है, अर्थात् इस मृत्यु को न तो सभी भिक्षु प्राप्त कर सकते हैं और न सब गृहस्थ ही उसे पा सकते हैं, किन्तु कोई एक भिक्षु और कोई एक भाग्यशाली गृहस्थ ही इसे प्राप्त कर सकता है। जैन सिद्धान्त के अनुसार नानाविध व्रत, नियम और प्रत्याख्यान रखने वाले गृहस्थों और उनकी अपेक्षा अत्यन्त कठोर आचार का पालन करने वाले साधुओं में यह पंडित-मृत्यु किसी एक को ही प्राप्त हो सकती है, सबको उसकी प्राप्ति नहीं होती। तो फिर अन्य सम्प्रदाय वालों की तो बात ही क्या है, जिनमें सर्वविरतित्व का ही अभाव है। ___ गृहस्थों के नियम भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं और साधुओं के आचार भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हुआ करते हैं, अतः सभी भिक्षुओं और सभी गृहस्थों को पंडित-मृत्यु की समानरूप से प्राप्ति नहीं हो सकती। यद्यपि पांचों महाव्रत-पांचों यम तो सबके सामान्य रूप से एक ही प्रकार के माने जाते हैं, तथापि अध्यवसाय और आचार की दृष्टि से वे भी भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। कुछ भिक्षु निदान पूर्वक तपकर्म का अनुष्ठान करने वाले होते हैं और कुछ सामान्य चारित्र वाले, कुछ मध्यम और कुछ उत्कृष्ट चारित्र का पालन करने वाले होते हैं, अतः सकाम-मृत्यु सर्व-सुलभ न होकर उत्कृष्ट पुण्यात्माओं को ही प्राप्त होती है। ' देश-विरति गृहस्थों के व्रत नियमों में भी अध्यवसाय के भेद से और आचार की दृष्टि से विषमता रहती है, इसलिए देश-विरति और सर्व-विरति दोनों में बाह्याचार की समानता होने पर भी अन्तरंग विषमता के कारण पंडित-मृत्यु के लिए सब को समान अधिकार की प्राप्ति नहीं होती। ____ अन्य सम्प्रदायों के गृहस्थ और साधुओं के लिए तो पंडित-मरण की प्राप्ति अत्यन्त ही दुर्लभ है। यद्यपि अन्य सम्प्रदायों में भी गृहस्थों के लिए अनेक प्रकार की शौचादि क्रियाओं का विधान है तथा भिक्षुओं के लिए भी अनेकविध उत्तम आचारों का उल्लेख है, तथापि उनमें सर्वविरति रूप चारित्र का अभाव होने से उक्त प्रकार की मृत्यु का प्राप्त होना उन्हें दुर्लभ है । यहां पर 'भिक्खूसु, अगारिसु' ये सप्तमी विभक्ति के प्रयोग षष्ठी के अर्थ में समझने चाहिए। अब फिर इसी विषय में कहते हैं सन्ति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा. । . गारत्थेहि य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥ सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, अगारस्थाः संयमोत्तराः | अगारस्थेभ्यश्र सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः ॥२०॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 217 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy