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________________ निर्भर हैं। इसलिए जिन लोगों ने अपने मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर लिया है वे ही महापुरुष इस सकाम-मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि मृत्यु के समय पर भी उनके चित्त में किसी प्रकार की विकृति नहीं आती। कारण यह है कि मरण के समय आगामी काल में प्राप्त होने वाली शुभगति का दृश्य उनके सन्मुख होता है। उसको देखकर वे महापुरुष बड़े प्रसन्न होते हैं। उनका प्रशान्त-चित्त पूर्णिमा के चन्द्रमा को देखकर समुद्र की भान्ति मृत्यु का स्वागत करते हुए उछलने लगता है, अधिक क्या कहें, हर्ष के कारण उनका प्रशान्त-चित्त मृत्यु के लिये अधीर हो उठता है। प्रायः मृत्यु का नाम सुनते ही सामान्य जनों के हृदय को बहुत बड़ा आघात लगता है, जिससे वे मृत्यु के भय से व्याकुल हो जाते हैं, परन्तु सकाम-मृत्यु के लिए प्रस्तुत मुनिराजों के हृदय पर मृत्यु का आगमन सुन कर कोई आघात नहीं लगता, अतः ऐसी मृत्यु को अनाघात कहा गया है। यही मृत्यु सकाम-मृत्यु कहलाती है। इसके अधिकारी पुण्यवान् ही होते हैं, अर्थात् पुण्यवानों को ही यह मृत्यु प्राप्त होती है, और किसी को नहीं। जैसे कि शास्त्रकारों का कथन भी है _ 'काले सुपत्तदाणं, सम्मत्तविसुद्धि बोहिलाभं च | अन्ते समाहिमरणं, अभव्व जीवा न पावंति ||' अनुकूल समय में सुपात्र-दान, सम्यक्त्व-विशुद्धि, बोधि-लाभ और अन्तिम समय में समाधिपूर्वक मरण, ये चारों बातें अभव्य जीवों को प्राप्त नहीं होती। गाथा में आए हुए 'तत्' शब्द से पूर्व-प्रकरण-कथित अकाम-मृत्यु का परामर्श करके यह अर्थ बनता है कि पहले आपने मुझसे जिस अकाम-मृत्यु के स्वरूप को सुना है वह निश्चित ही बाल जीवों को प्राप्त होती है और अब जिस सकाम-मृत्यु को सुना है, वह पुण्यवानों को ही प्राप्त होती है। यही बात वृत्तिकार ने भी लिखी है यथा—तदपि प्राक् सूत्रोपात्तमनुश्रुतमवधारितं भवद्भिरितिशेषः, 'इतः . सकाम-मरणमित्युपक्षेपस्तत्र मत्सकाशाद्यन्मरणं भवद्भिः श्रुतं, तत्पुण्यानामेव भवतीत्यर्थः।' _ 'वश्यवताम्' के प्रतिरूप में जो 'वुसीमओ' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह आर्ष होने से जानना चाहिए। यहां पुण्य शब्द का अर्थ 'पवित्रात्मा' है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं न इमं सव्वेसु भिक्खूसु, न इमं सव्वेसुऽगारिसु । नाणासीला अगारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो ॥ १६ ॥ नेदं सर्वेषु भिक्षुषु, नेदं सर्वेषुअगारिषु । नानाशीला अगारस्था, विषमशीलाश्च भिक्षवः ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः—इमं—यह सकाम-मरण, सव्वेसु–सभी, भिक्खू भिक्षुओं की, न—नहीं,, इमं—यह मृत्यु, सव्वेसु–सभी, अगारिसु-गृहस्थों को नहीं होती है, नाणा—नाना प्रकार के, सीला—नियमों वाले, अगारथा—गृहस्थ होते हैं, य—और इसके विपरीत, विसमसीला—विषमशील वाले, भिक्खुणो–भिक्षु हैं। __श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 216 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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