________________
टीका-अकाम-मृत्यु और सकाम-मृत्यु का संक्षेप से इतना ही अर्थ है कि जो मृत्यु विषयों के वशीभूत होकर बिना इच्छा के प्राप्त हो उसे अकाम मृत्यु कहते हैं और जो मृत्यु विषयों से निवृत्त होकर इच्छापूर्वक संलेखनायुक्त और अनशनव्रत के साथ हो उसका नाम सकाम-मृत्यु है। इसी
अभिप्राय से अकाम-मृत्यु के साथ बाल और सकाम-मृत्यु के साथ पंडित शब्द की योजना की गई है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि अकाम-मृत्यु अज्ञानी जीवों की और सकाम-मृत्यु संयमशील पण्डित पुरुषों की होती है। अथवा यूं कहें कि बालजीवों की मृत्यु को अकाम-मरण और विचारशील पुरुषों की मृत्यु को सकाम-मरण कहते हैं। बालजीवों के अकाम-मरण का विस्तृत वर्णन तो ऊपर किया जा चुका है और अब पंडित पुरुषों के सकाम-मरण का प्रतिपादन आगे की गाथाओं में किया जाता है जिसके श्रवण के लिए शास्त्रकार श्रोताओं को अभिमुख करते हुए कहते हैं कि अकाम-मृत्यु का जो स्वरूप तीर्थङ्कर भगवान् और उनके उत्तराधिकारी गणधरों ने प्रतिपादित किया है उसी के अनुसार मैंने वर्णन किया है और अब सकाम-मृत्यु के स्वरूप को आप लोग सुनें। अब पुण्यात्माओं की सकाम-मृत्यु का वर्णन करते हैं
मरणंपि संपुण्णाणं, जहा मे यमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं, संजयाणं वुसीमओ ॥ १८ ॥
मरणमपि सपुण्यानां, यथा मे यदनुश्रुतम् ।
विप्रसन्नमनाघातं, संयतानां वश्यवताम् || १८ ॥ . पदार्थान्वयः—मरणंपि—मरण भी, सपुण्णाणं-पुण्यवानों का, जहा—जैसे, मे—मुझ से, तं—उसको–अकाममृत्यु को, अणुस्सुयं श्रवण किया है, विप्पसण्णं—प्रसन्नचित्त, अणाघायंआघात-रहित, संजयाणं संयम-परायणों, वुसीमओ-इन्द्रियों को वश में करने वालों (की सकाम मृत्यु भी सुनें)।
मूलार्थ जैसे मैंने उस (सकाम-मृत्यु को भगवान् महावीर से) सुना है, वैसे अब आप भी प्रसन्न-चित्त होकर आघात-रहित, संयम-परायण, इन्द्रियों को वश में करने वाले पुण्यशीलों की सकाम-मृत्यु को सुनें।
टीका—सकाम-मृत्यु भावों की शुद्ध परिणति पर निर्भर है। इसके लिए पुण्यात्मा, जितेन्द्रिय साधु पुरुष ही अधिकतया उपयोगी हो सकते हैं। अन्य साधारण व्यक्ति को सकाम-मृत्यु का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है।
तात्पर्य यह कि मृत्यु को जो स्वयं आमंत्रित करते हैं और मृत्यु के समय जिनका चित्त बिल्कुल प्रसन्न रहता है तथा मृत्यु के आने पर जिनका हृदय परम शांत समुद्र की भान्ति गम्भीर, शांत और दया के भावों की ऊर्मियों से सदा भरा हुआ रहता है, उन पुण्यवान् आत्म-निग्रही साधु-महात्माओं को ही इस सकाम-मृत्यु की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि प्रसन्न-चित्तता और दयालुता मन के निग्रह पर ही
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 215 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं