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________________ टीका—द्यूत-क्रीड़ा में अपनी सारी सम्पत्ति को हार देने से एक जुआरी की जो शोचनीय दशा होती है, उसको अपनी चिरकालार्जित विभूति के नष्ट हो जाने से जो पश्चात्ताप होता है, अपनी वर्तमान-कालीन हीन दशा को देखकर जो ग्लानि होती है और चिरकाल से चली आने वाली अपनी असाधारण प्रतिष्ठा के खोए जाने से उसके मन में जो खेद होता है एवं भविष्य के अन्धकारमय जीवन की कल्पना करते हुए जिस भय और त्रास का दृश्य उसके सम्मुख उपस्थित होता है, उसका अनुमान बड़ी सरलता से किया जा सकता है। ठीक ऐसी ही चिन्तनीय दशा उस मूढ़ प्राणी की होती है जिसने अपने जीवन-धन या आत्म-विभूति को विषय-क्रीड़ा में खो दिया हो। अपने पापों का फल भोगते समय उसे जो पश्चात्ताप होता है तथा मृत्यु के समीप आने पर उसको जिस प्रकार के भय और त्रास का मना करना पड़ता है एवं नरकजन्य वेदनाओं के स्मरण से उसके हृदय में जिस प्रकार की आकलता का प्रादुर्भाव होता है, उसकी कल्पना किसी विशिष्ट ज्ञानी के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता। मृत्यु-समय में होने वाले भय, त्रास और आर्तनाद के कारण ही उसका अकाम-मृत्यु से मरण होता है। यहां पर इतना और भी विचार कर लेना आवश्यक है कि अज्ञानी जीव को जो शोक एवं पश्चात्ताप होता है, वह मृत्यु-समय पर होता है या नरकगति में जाने पर होता है? इस प्रश्न का निर्णय इस प्रकार से किया जा सकता है कि सामान्य रूप से तो सूत्रकार का आशय नरक में पश्चात्ताप करने का ही प्रतीत होता है, अर्थात् अज्ञानी जीव नरक में जाकर दुख को प्राप्त होता हुआ मनुष्य और देव-लोक के सुखों का स्मरण करके अत्यन्त खेद को प्राप्त होता है। परन्तु वृत्तिकार के 'शोचन्नेव म्रियते' शोक करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है—लिखने से मृत्यु के समय पर भी शोक का होना ठीक प्रतीत होता है। इसलिए मृत्यु के समय और नरक की प्राप्ति के बाद दोनों ही स्थानों में शोक का होना युक्ति-युक्त प्रतीत होता है। 'मरण' यह तृतीया विभक्ति के अर्थ में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग आर्ष समझना चाहिए। अब शास्त्रकार सकाममृत्यु के विषय में लिखते हैं एयं अकाममरणं, बालाणं तु पवेइयं । इत्तो सकाममरणं, पण्डियाणं सणेह मे ॥ १७ ॥ एतदकाममरणं, बालानां तु प्रवेदितम् । इतः सकाममरणं, पण्डितानां श्रृणुत मे || १७ || पदार्थान्वयः—एयं—यह, अकाम मरणं—अकाममृत्यु, बालाणं—अज्ञानी जीवों के, पवेइयं—प्रतिपादन किया है, इत्तो—इसके अनन्तर, पंडियाणं पंडितों के, सकाममरणं-सकाम-मरण को, मे—मुझ से, सुणेह—सुनो! यहां 'तु' शब्द एवार्थक है। मूलार्थ—यह अज्ञानी जीवों के अकाम-मरण का प्रतिपादन कर दिया गया है, अब इसके अनन्तर पंडितों के सकाम-मरण को मुझ से सुनो। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 214 / अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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