________________
- एवं धर्मं व्युत्क्रम्य, अधर्मं प्रतिपद्य ।
बालो मृत्युमुखं प्राप्तः, अक्षे भग्न इव शोचति ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः—एवं इसी प्रकार, धम्मं धर्म को, विउक्कम्म–छोड़ करके, अहम-अधर्म को, पडिवज्जिया—ग्रहण करके, बाले–अज्ञानी, मच्चुमुहं—मृत्यु के मुख को, पत्ते—प्राप्त हुआ, अक्खे—धुरी के, भग्गे–टूटने पर, व–अर्थात् गाड़ीवान की तरह, सोयइ-सोच करता है।
- मूलार्थ इसी प्रकार धर्म को छोड़कर और अधर्म को ग्रहण करके मृत्यु के मुख में पहुंचा हुआ अज्ञानी जीव गाड़ी की धुरी के टूट जाने पर गाड़ीवान की तरह शोक अर्थात् सन्ताप प्राप्त करता है।
टीका यहां पर धर्म को राजमार्ग और अधर्म को विषम मार्ग कहा गया है, जीव को गाड़ीवान्, शरीर को गाडी और आय को धरा समझना चाहिए। उपमेय और उपमानों की इस व्यवस्था को लक्ष्य में रखकर भावार्थ यह हुआ कि राज-मार्ग के त्याग और विषम-मार्ग के अनुसरण से मार्ग में जैसे धुरे के टूट जाने पर संकट में पड़ा हुआ गाड़ीवान शोकाकुल होता है, उसी प्रकार धर्म के त्याग और अधर्म के अंगीकार से जीवन-यात्रा में आयुरूप शकट-धुरा के टूट जाने पर मृत्यु के मुख में पुहंचा हुआ अज्ञानी जीव भी निस्सन्देह शोक और सन्ताप को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार संकट-ग्रस्त गाड़ीवान अपने कर्त्तव्य की ओर ध्यान न देता हुआ अधिक-से-अधिक सोच करता है, उसी प्रकार मृत्यु के मुख में आने वाले अज्ञानी जीव को भी अपने जघन्य आचरणों का ख्याल करके कल्पनातीत शोक और पश्चात्ताप करना पड़ता है। अपनी विषय-भोगों में व्यर्थ खोई हुई युवावस्था को स्मरण में लाने से उसे जो खेद होता है तथा अपने अतीतकृत कुत्सित आचारों को देखकर उसे जो ग्लानि उत्पन्न होती है उसका तथ्य कोई अतिशय ज्ञानी ही जान सकता है। अब बाल जीव की जो दशा होती है उसका वर्णन करते हैं
तओ से मरणंतम्मि, बाले संतस्सई भया । अकाममरणं मरई, धुत्तेव कलिणा जिए ॥ १६ ॥ ततः स मरणान्ते, बालः संत्रस्यति भयात् ।
अकाम-मरणं म्रियते, धूर्त इव कलिना जितः ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः–तओ—उसके अनन्तर, से—वह, बाले—मूर्ख जीव, मरणंतम्मि-मृत्यु के समीप आने पर, भया—भय से, संतस्सई–त्रास को प्राप्त होता है, अकाममरणं—अकाम मृत्यु, मरई मरता है, धुत्तेव-जुआरी की तरह, कलिणा—एक दांव में, जिए—जीता हुआ अर्थात् शेष सब दांवों में हारा हुआ।
मूलार्थ—उसके अनन्तर वह अबोध प्राणी मृत्यु के आ जाने पर भय से बहुत त्रास पाता है और एक ही दांव में जीत कर शेष सब दांवों में हार जाने वाले जुआरी की तरह शोक अर्थात् सन्ताप को प्राप्त होता हुआ अकाम मृत्यु से मरता है। |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 213 / अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयणं ।