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प्रकार, महापहं—राजमार्ग को, हिच्चा त्याग कर, विसम-विषम, मग्गं—मार्ग की ओर, ओइण्णो—चल पड़ता है, अक्खे—शकट की धुरी के, भग्गम्मि–टूट जाने पर, सोयइ–सोचता है।
मूलार्थ जैसे कोई एक गाड़ीवान राज-मार्ग को भली प्रकार से जानता हुआ भी उसको छोड़कर विषम मार्ग की ओर चल पड़ता है और उस विषम मार्ग पर जाने से उसकी गाड़ी की धुरी टूट जाती है, तब उसके टूट जाने पर वह शोक करता है।
टीका—इस गाथा में सन्मार्ग का परित्याग करके कुमार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की क्या दशा होती है, इस बात को विषम पथगामी गाड़ीवान के दृष्टान्त से बहुत ही अच्छी तरह समझाया गया है। यदि कोई गाड़ीवान कंकर-पत्थर आदि से रहित अच्छे राज-मार्ग को जानता हुआ भी उस का परित्याग करके विषम अर्थात् कंकर-पत्थर वाले मार्ग-जो कि गाड़ी आदि के चलने लायक नहीं होता से चलने पर मार्ग में गाड़ी की धुरी टूट जाने से शोक को प्राप्त करता है और अपने किए हुए विपरीत काम पर पश्चात्ताप करता है, इसी प्रकार सन्मार्ग का परित्याग करके कुमार्ग पर चलने वाले अबोध प्राणी को भी अन्त में पश्चात्ताप ही करना पड़ता है, इतने कथन का सम्बन्ध अग्रिम गाथा के साथ है।
राज-मार्ग से जाने वाला गाड़ीवान सदा निर्भय रहता है। उसे किसी चोर या लुटेरे आदि का भय नहीं रहता, तथा राजमार्ग से चलने वाली गाड़ी भी निरुपद्रव अपने नियत स्थान पर पहुंच सकती है
और उसके टूटने आदि का भी किंचित् भय नहीं रहता। इसके विपरीत विषम मार्ग से जाना एक प्रकार से विपत्तियों को मोल लेना है, गाड़ी आदि के टूटने का तो खतरा होता ही है, उसमें चोर डाकू . आदि का भी भय रहता है। इसलिए राज-मार्ग को छोड़कर किसी विकट मार्ग से जाने वाले को अवश्य कष्ट भोगना पड़ेगा।
मार्ग के मध्य में गाड़ी के टूट जाने पर उसके स्वामी को कितना शोक होगा, कितना पश्चात्ताप होगा और कितने कष्टों का सामना करना पड़ेगा, इसकी कल्पना सहज में ही की जा सकती है। विषम मार्ग पर चलने के कारण जिस समय गाड़ी का धुरा टूट जाएगा, उस समय उसको अपनी
अज्ञता पर कितना विषाद होगा, वह अपनी जानबूझ कर की हुई भूल पर अपने आपको कितना धिक्कारेगा तथा भविष्य में अपने इस कटु अनुभव को जनता के समक्ष वह किस रूप में रखेगा, इसका ज्ञान भी सहज ही में हो सकता है।
कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि सुमार्ग का परित्याग करके कुमार्ग में जाने से कार्य की असिद्धि, क्लेश, भय, दुख और सन्ताप की प्राप्ति के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए सज्जन पुरुषों को किसी भी दशा में सन्मार्ग का परित्याग नहीं करना चाहिए । अब इसी दृष्टान्त के उपनय का वर्णन करते हैं
एवं धर्म विउक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया । बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयइ ॥ १५ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 212 / अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयर्ण