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________________ मेयं मैंने, अणुस्सुयं–सुने हुए हैं, आहाकम्मेहिं—कर्मों के अनुसार, गच्छंतो—जाता हुआ, सो—वह अज्ञानी जीव, पच्छा—पीछे से, परितप्पई-शोक करता है। मूलार्थ—उस नरक में उत्पन्न होने के स्थान जैसे मैंने सुने हैं श्रवण के द्वारा निश्चित किए हुए हैं, अपने कर्मों के अनुसार उन स्थानों में जाने वाला यह अबोध प्राणी शोक करता है। टीका-नरक में उत्पन्न होने के कुम्भी आदि अनेक स्थान हैं, उन स्थानों में अपने किए अशुभ कर्मों के प्रभाव से जाकर उत्पन्न होने वाला जीव आयु के क्षय होने पर इस प्रकार पश्चात्ताप करता है .. 'हा ! मुझे धिक्कार है! मैंने कुछ भी सुकृत नहीं किया। इस दुर्लभ मानव-जीवन का मैंने कुछ भी मूल्य न समझा, मैं बड़ा ही मन्दभागी हूं। अब मैं क्या कर सकता हूं?' अन्त समय में नरक की आनुपूर्वी के आने से, नरक की गति का ध्यान आने से वह अबोध प्राणी एकदम भयभीत हो उठता है। उसकी आंखों के सामने नरक का सारा दृश्य आकर उपस्थित हो जाता है, उन भयानक दृश्यों को देखकर वह तुरन्त बोल उठता है कि 'अरे मुझे इन नरक-पालों से छुड़ाओ और देखो ये मुझे मारते हैं। मुझे डराते हैं। हाय! अब तो उन्होंने मुझे मार ही डाला है।' इत्यादि प्रलाप करता है और कभी-कभी तो मृत्यु-समय के उस भयानक दृश्य से अत्यन्त घबरा कर वह ऐसा शोर मचाने लगता है कि पास में बैठे हुए लोग भी भयग्रस्त होकर इधर-उधर देखने लगते हैं। शास्त्रानुसार यह बात सर्वथा अनुभव-सिद्ध है कि कर्मों के अनुसार इस जीव ने जिस गति का बन्ध किया होता है तथा मृत्यु के अनन्तर इस जीव ने जिस गति में जाना होता है, मृत्यु के समय उस गति की आनुपूर्वी—उस गति का दृश्य उसके सामने आकर उपस्थित हो जाता है। इसलिए अनेक प्राणी मृत्यु के समय उक्त प्रकार का प्रलाप करते हुए देखे जाते हैं__गाथा में जो ‘उववाइयं' 'औपपातिकम्' शब्द दिया गया है, उसका कारण केवल इतना ही है कि नरक में उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त के बाद ही नरक-सम्बन्धी यातनाओं का आरम्भ हो जाता है और गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य और पशु आदि को कुछ समय बाद में वेदना की अनुभूति होती है। नारकी जीवों की उत्पत्ति भी कुम्भी आदि में होती है। 'कुम्भी' यह शब्द भी इसलिए अधिक प्रसिद्ध है कि वह नरक-गति में जाने वाले प्राणियों का उत्पत्ति-स्थान है। अब इसी भाव को एक दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करते हैं जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयइ॥१४॥ यथा शाकटिको जानन्, समं हित्वा महापथम् । विषमं मार्गमवत्तीर्णः, अक्षे भग्ने शोचति || १४ || पदार्थान्वयः-जहा—जैसे, सागडिओ—गाड़ीवान, जाणं-जानता हुआ, समं—समतल, भली श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 211 /अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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