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________________ सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई । . बालाणं कुरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥ १२ ॥ श्रुतानि मया नरकस्थानानि, अशीलानां च या गतिः। बालानां क्रूर-कर्मणां, प्रगाढा यत्र वेदना || १२ ॥ पदार्थान्वयः-सुया–सुने हैं, मे—मैंने, नरए-नरक में, ठाणा-स्थान, असीलाणं दुष्टों की, च—और, जा—जो, गई—गति है, बालाणं—मूों, कूरकम्माणं क्रूर कर्म वालों को, पगाढ़ा—अत्यन्त, जत्थ—जहां पर, वेयणा—वेदना है। ___ मूलार्थ—मैंने कुम्भीपाक आदि नरक-स्थानों को सुना है और शीलरहित दुष्ट पुरुषों की जो गति होती है वह भी सुनी है, जहां पर कि क्रूर कर्म करने वाले अज्ञानी जीव अत्यन्त वेदना को प्राप्त होते टीका—इस गाथा में दुष्ट कर्मों के फलस्वरूप नरक आदि यातनाओं का सामान्यरूप से दिग्दर्शन कराया गया है। किसी भयंकर रोग के आक्रमण से दुख को प्राप्त हुआ जीव अपने किए हुए अशुभ कृत्यों पर पश्चात्ताप करता हुआ यह सोचने लगता है कि 'मैंने नरक स्थानों कुम्भीपाक, वैतरणी नदी, असिपत्र और कूटशाल्मली आदि वृक्षों को सुना है और दुष्ट आचार वाले जीवों की जो गति होती है उसका भी मेरे को ध्यान है, जहां पर कि क्रूर कर्मों-हिंसा, चोरी आदि कर्म करने वालों को अति भयंकर उष्ण-शीत और वध, ताड़ना आदि की अति कठोर वेदनाओं को सहन करना पड़ता है। मैं भी तो सदाचार से रहित और हिंसा आदि महाक्रूर कर्मों का आचरण करने वाला हूं, कहीं ऐसा न हो कि मुझे भी उसी स्थान का अतिथि बनना पड़े जहां पर कि दुष्टाचारी पुरुषों को जाना पड़ता है और जाकर दुखमयी तीव्र यातनाएं सहन करनी पड़ती हैं।' इत्यादि सोचने पर उसका हृदय भावी दुखों का स्मरण करके एकदम कांप उठता है, इसलिए विचारशील पुरुषों को उचित है कि वे रोग और मृत्यु के आकस्मिक आक्रमण का ध्यान रखते हुए अनार्योचित कर्मों से अपनी आत्मा को सर्वथा अलग रखने की कोशिश करें ताकि उनको फिर कभी किसी प्रकार के पश्चात्ताप करने का अवसर ही प्राप्त न हो। अब प्रकारान्तर से फिर इसी विषय की चर्चा करते हैं तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मेयमणुस्सुयं । आहाकम्मेहिं गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्पई ॥ १३ ॥ तत्रौपपातिकं स्थानं, यथा मे एतदनुश्रुतम् । यथाकर्मभिर्गच्छन् सः पश्चात् परितप्यते || १३ || पदार्थान्वयः–तत्थ—उस नरक में, उववाइयं—उत्पन्न होने के, ठाणं-स्थान, जहा—जैसे, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 210 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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