SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ—उसके अनन्तर वह अज्ञानी जीव किसी आतंक एवं रोग विशेष के स्पर्श से रोगी होकर परिताप अर्थात् खेद को पाता है, अतएव अपने आचरित कर्मों का अन्वेषण करता हुआ परलोक से भयभीत होता है। टीका-विषय-वासनाओं के उद्रेक से अधिक कर्म-मल का संचय करने वाले जीव की रोग आदि के उपस्थित होने पर जो दशा होती है उसका चित्र इस गाथा में बड़ी ही सुन्दरता से खींचा गया है। अबोध प्राणी पर जब कभी किसी प्राण-घातक शूल आदि रोग का आक्रमण होता है तो वह उससे पीड़ित होकर बहुत खेद को प्राप्त हो जाता है। इतना ही नहीं, अपने कर्मों का अवलोकन करता हुआ वह परलोक से भी भयभीत होता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी विकट रोग के आक्रमण से दुख की मात्रा जब अधिक हो जाती है तब विषयी प्राणी अपने पूर्वकृत कर्मों का अवलोकन करता हुआ बहुत पश्चात्ताप करता है और परलोक-सम्बन्धी यातनाओं को स्मरण करके और भी अधिक भयभीत होता है, क्योंकि अपनी पूर्व की जीवन-चर्या का पर्यालोचन करने पर उसे अपने जीवन में दुष्कृत्यों के अतिरिक्त एक भी सुकृतानुष्ठान देखने में नहीं आता, तब वह पश्चात्ताप करता हुआ आर्त और कार्त स्वर से कहता है कि मैंने अपने इस अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही खोया। काम-भोगादि विषय-वासनाओं की तीव्र अग्नि-ज्वाला में अपने यौवन की आहुति देकर मैंने बड़ा ही अनर्थ किया। उस समय यदि मैंने कुछ भी सुकृत-कर्म का उपार्जन किया होता तो मुझे आज अवश्य थोड़ा बहुत आश्वासन मिलता तथा अपने पूर्वार्जित दुष्कर्मों का ख्याल आने से वह और भी संत्रस्त हो जाता है। .. जिस प्रकार एक चोर कठोर राजदंड से अधिक त्रास को प्राप्त होता है, ठीक वही दशा पाप-कर्मों का आचरण करने वाले इस जीव की होती है। जब वह अपने किए हुए दुष्ट कर्मों पर दृष्टि डालने के बाद उनके फल-विपाक पर विचार करता है तब वह एकदम भयभीत हो जाता है और अपने किए हुए कृत्यों पर भूरि-भूरि पश्चात्ताप करता है, इसलिए सज्जन पुरुषों को चाहिए कि वे अपने इस अमूल्य जीवन को विषय-वासनाओं की पूर्ति में नष्ट करने के स्थान पर उसे श्रेय-सम्पादक सुकृत-कर्मानुष्ठान में लगाने का ही अधिक प्रयत्न करें। . यहां पर सूत्रकार ने रोगावस्था में होने वाले पश्चात्ताप के रूप में अष्टविध कर्मों के यत्किंचित् फल का दिग्दर्शन मात्र करा दिया है जिससे कि पापाक्रान्त आत्मा को इसी जन्म में और परलोक में भी जाने से डर रहे। 'परंलोगस्स' यह पंचमी विभक्ति के स्थान में जो षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है वह प्राकृत के नियम के आधार पर है। आतंक उस रोग का नाम है जो शीघ्र ही प्राणों का घात करने वाला हो, जैसे शूल आदि भयंकर रोग। इस प्रकार के भयंकर रोग शरीर से आत्मप्रदेशों को बहुत जल्द ही अलग कर देते हैं। ___ अब इसी विषय को प्रकारान्तर से कुछ और स्पष्ट किया जाता है . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 209 /अकाममरणिज्ज पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy