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________________ कर्म-मल का संचय करता है। वह अपने शरीर की बलवती शक्ति पर गर्व करता हुआ अपने आपको एक मदोन्मत्त हस्ती के समान समझता है तथा वाणी की प्रगल्भता पर अभिमान करता हुआ अपनी स्तुति से तृप्त ही नहीं होता और मन के विषय में उसकी गरिमा इतनी बढ़ी हुई होती है कि अपने समान धारणाशक्ति वाला वह और किसी को समझता ही नहीं। इसी प्रकार उसकी धन-विषयक आकांक्षा का भी कोई पारावार नहीं रहता, कामपूर्ति की साधनभूत स्त्रियों में उसकी बढ़ी हुई आसक्ति का अन्दाजा लगाना यदि असम्भव नहीं तो कठिनतर अवश्य है। उसकी यह रागद्वेष-मूलक प्रवृत्ति दोनों प्रकार से अर्थात् अभिमान और आसक्ति के रूप में कर्म-मल को संचित करती है। जिस प्रकार केंचुआ नाम का जीव मृत्तिका का मुख और शरीर दोनों प्रकार से ग्रहण करता है, उसी प्रकार यह अज्ञानी जीव भी राग-द्वेष दोनों प्रकार से कर्म-मल को एकत्रित करता है तथा जैसे सूर्य के आताप से शरीर के सूखने पर केंचुए की मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार रांग-द्वेष के वशीभूत हुआ यह जीव अष्टविध कर्मों के मल को संचित कर के सूर्यातप के समान, कर्मोदय के समय अत्यन्त दुख को भोगता है। केंचुए की यह प्रकृति है कि वह मुख से मिट्टी को खाने के साथ-साथ अपने शरीर को भी मिट्टी से वेष्टित कर लेता है, परन्तु सूर्य के अत्यन्त उष्ण ताप से उसका शरीर सूख कर फट जाता है और तुरन्त ही उसकी मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार प्रमादी जीव भी राग-द्वेष की परिणति से कर्म-मल को एकत्रित करने के बाद उसके विपाकोदय से पूर्ण दुखी होता है। ___ 'कायसा' शब्द 'कायेन' का प्रतिरूप है और 'वित्त' शब्द से अदत्त और परिग्रह दोनों का ग्रहण कर लेना चाहिए। हिंसा आदि का उल्लेख पूर्व गाथा में कर ही दिया गया है एवं स्त्री शब्द से कामपूर्ति के सभी साधनों का ग्रहण अभिप्रेत है। तब इस गाथा का सारांश यह निकला कि अज्ञानी जीव हिंसा आदि पांचों आस्रवों के द्वारा विविध राग-द्वेष की परिणति से कर्म-मल को आत्म-प्रदेशों में संचित करके उसके विपाकोदय से दुख को प्राप्त होता है। रोग आदि के उत्पन्न हो जाने पर ऐसे व्यक्ति की क्या दशा होती है, अब इस विषय का वर्णन किया जाता है तओ पुट्ठो आयंकेणं, गिलाणो परितप्पई । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणो ॥ ११॥ ... ततः स्पृष्टः आतंकेन, ग्लानः परितप्यते । प्रभीतः परलोकात्, कर्मानुप्रेक्षी आत्मनः ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-तओ—तदनन्तर, पुट्ठो—स्पर्शित हुआ, आयंकेणं—आतंक अर्थात् शूल से, गिलाणो-रोगी होकर, परितप्पई खेद को पाता है, पभीओ-डरता हुआ, परलोगस्स-परलोक से, अप्पणो अपने किए हुए, कम्माणुप्पेहि कर्मों को देखने वाला। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 208 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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