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________________ अर्थात् छल-कपट में कोई जघन्य काम बाकी नहीं रहता एवं पिशुनता (चुगली करना) भी गुप्त दोषों के समूह को आमन्त्रण देने में एक प्रधानतम साधन है। अब रही शठता अर्थात् धूर्तता की बात, इसकी निकृष्टता तो लोक-प्रसिद्ध ही है। लाखों उपदेश करने पर भी ये दोष नष्ट नहीं होते। इसलिए आत्मा के अभ्युदय की इच्छा रखने वाले जिज्ञासु पुरुष को आत्मा में मलिनता का सम्पादन करने वाले इन उक्त दोषों को दूर करके आहार के साथ व्यवहार की भी शुद्धि करते हुए अपनी आत्मा में निर्मलता पैदा करनी चाहिए। ____ यहां पर धर्मात्मा पुरुषों के लिए त्याग करने योग्य ऊपर बताए गए दोषों का श्रृङ्खलाबद्ध क्रमिक सम्बन्ध भी समझ लेना चाहिए जो इस प्रकार है—जो हिंसक है वह झूठ भी बोलता है और जो झूठ बोलने वाला है वह मायावी अर्थात् छल-कपट करने वाला भी होता है तथा जो मायावी है उसका पिशुन अर्थात् चुगलखोर होना भी जरूरी है और निन्दक एवं चुगलखोर के लिए धूर्त बनना तो बिल्कुल साधारण सी बात है। जब धूर्तता का प्रवेश हो गया तो फिर खान-पान सम्बन्धी विवेक और मर्यादा को अवकाश कहां? विवेक एवं मर्यादा को तो तभी तक स्थान प्राप्त होता है जब तक धूर्तता का आगमन नहीं हुआ। विवेक के अभाव में मदिरा और मांस दोनों के सेवन करने में उसे कुछ भी संकोच या आपत्ति शेष नहीं रह जाती, क्योंकि उसे अब किसी से किसी प्रकार की लज्जा नहीं रही। यही इनका क्रमिक सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त गाथा में आए हुए ‘माइल्ले' शब्द में मायी के अर्थ में 'ल्ल' प्रत्यय आया हुआ अब फिर इसी विषय को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाता है कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागो व्व मट्टियं ॥ १०॥ .. . कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु । - 'द्विधा मलं संचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥ १० ॥ . पदार्थान्वयः-कायसा—काया से, वयसा वचन से, मत्ते—जो मत्त है, वित्ते—धन में, य—और, इत्थिसु स्त्रियों में, गिद्धे—मूर्छित है, दुहओ—दोनों प्रकार से, मलं-कर्म-मल को, संचिणइ—वह संचित करता है, व्व-जैसे, सिसुणागो शिशु नाग, मट्टियं मिट्टी को। मूलार्थ—यह अज्ञानी जीव मृत्तिका को एकत्रित करने वाले शिशुनाग अर्थात् केंचुए की तरह दोनों प्रकार से कर्म-मल को संचित करता है, क्योंकि शरीर और वाणी से वह मत्त और धन तथा स्त्रियों में मूर्छित है—आसक्त है। . टीका—इस गाथा में अज्ञानी जीव की प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। अबोध प्राणी अपनी शारीरिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के द्वारा शिशुनाग अर्थात् केंचुए की भान्ति दोनों प्रकार से श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 207 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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