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________________ मूलार्थ — हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली करने वाला और धूर्तता करने वाला तथा मदिरा और मांस खाने वाला अज्ञानी जीव कामवासना में आसक्त हुआ • उक्त सभी पापकर्मों को श्रेष्ठ समझता है । टीका - इस गाथा में अकाम - मृत्यु वाले जीवों के व्यवहार अर्थात् कुत्सित आचरणों का दिग्दर्शन कराया गया है। तात्पर्य यह है कि अकाम-मृत्यु को प्राप्त होने वाला मूर्ख अज्ञानी जीव हिंसा करता है, झूठ बोलता है, छल-कपट करता है, चुगली करता है, धूर्तता करता है तथा मदिरा पीता है और मांस खाता हुआ भी अपने इन कुत्सित आचरणों को श्रेष्ठ समझता है । ऊपर दिए गए विवरण का भावार्थ यह है कि मनुष्य का प्रधान लक्ष्य आत्मशुद्धि हैं और आत्मा की शुद्धि का आधार आहार-शुद्धि और व्यवहार-शुद्धि है । जिस प्राणी का आहार और व्यवहार शुद्ध नहीं है, उसकी आत्मा का शुद्ध होना कठिन ही नहीं, किन्तु असम्भव है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने ऊपर दी हुई गाथा में आहार और व्यवहार सम्बन्धी दोषों का वर्णन रूपान्तर से किया है। जिसका आहार दुष्ट है और व्यवहार भी दोष-पूर्ण है उस जीव को अकामृत्यु का अवश्यंभावी है। इसके विपरीत आहार-शुद्धि के साथ व्यवहार को भी शुद्ध रखने वाला जीव अपने आत्मविकास में उत्तरोत्तर वृद्धि करता हुआ एक दिन सकाम - मृत्यु को प्राप्त कर लेता है। आहार की शुद्धि खाद्याखाद्य पदार्थों के चुनाव पर निर्भर है। जो पदार्थ भक्षण करने पर बुद्धि में सात्विकता पैदा करने वाले हैं वे भक्ष्य हैं और जिनके भक्षण से चित्त में तामसिकता या विकृति पैदा हो, वे अभक्ष्य हैं। परन्तु आत्मा पर जिन पदार्थों के भक्षण से दोषपूर्ण अधिक प्रभाव पड़ता है उनमें प्रधानरूप मदिरा और मांस हैं। मदिरा और मांस के उपयोग से आत्मा के ज्ञान और चारित्र गुणों पर विरोधी संस्कारों का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और उसकी उत्क्रान्ति में अधिक-से-अधिक रुकावट पड़ती है, क्योंकि मांस-मदिरा - युक्त आहार अधिक अशुद्ध और भारी होता है तथा उत्थान के बदले वह पतन की ओर - ही अधिक ले जाने वाला होता है, इसलिए आत्मशुद्धि की अभिलाषा रखने वाले जिज्ञासु जनों को इन दोषपूर्ण दोनों पदार्थों (मदिरा और मांस) का सर्व प्रकार से परित्याग कर देना चाहिए । आहार-शुद्धि के साथ व्यवहार - शुद्धि की भी बड़ी भारी आवश्यकता है। आत्मा के अन्तरंग मल को निकालने के लिए व्यवहार शुद्धि के समान कोई उत्तम क्षार नहीं है और आहार-शुद्धि को यथार्थरूप में समझने के लिए व्यवहारगत दोषों को समझने की भी अधिक आवश्यकता है । यद्यपि व्यवहारगत दोष अनेक हैं और उन सब का वर्णन अशक्य है, फिर भी यहां पर संक्षेप में उल्लेख किए गए वे दोष केवल पांच हैं, यथा - हिंसा, झूठ, माया, पिशुनता और शठता । इन पांचों में ही प्रायः अन्य सभी दोषों का समावेश हो जाता है। हिंसा सारे ही दोषों की जननी है और झूठ में सारे ही अनर्थों का समावेश हो जाता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 206 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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