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पदार्थान्वयः तओ—उसके बाद, से—वह, दण्डं—दण्ड का, समारभई—आरम्भ करता है, तसेसुत्रसों में, य—और, थावरेसु–स्थावरों में, अट्ठाए–अर्थ के लिए, व–अथवा, अणट्ठाए-अनर्थ के लिए, भूयगामं—प्राणी समूह का, विहिंसई-विनाश करता है।
मूलार्थ—इसके अनन्तर वह काम-भोगासक्त व्यक्ति त्रस और स्थावर जीवों में दंड का आरम्भ करता है, अर्थात् मन, वचन और शरीर के द्वारा त्रस और स्थावर जीवों को दंड देता है तथा सप्रयोजन और बिना प्रयोजन दोनों ही प्रकार से प्राणी समुदाय की हिंसा करता है।
टीका—इस गाथा में विषय-कामना से प्रेरित हुए व्यक्ति की हिंसक प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। काम-भोगादि विषयों में अधिक आसक्ति रखने वाला व्यक्ति मन, वाणी और शरीर के द्वारा त्रस और स्थावर जीवों को दंड देता है, अर्थात् मन के द्वारा, वचन के द्वारा और शरीर के द्वारा उनका वध करता है तथा धन के निमित्त एवं अन्य किसी प्रयोजन से अथवा बिना किसी प्रयोजन के भी प्राणी-समूह की हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। इस कथन का अभिप्राय यह है कि विषयी पुरुषों की हिंसक प्रवृत्ति में अर्थानर्थ का जरा भी विवेक नहीं होता। वे प्रयोजन होने पर भी हिंसा करते हैं और बिना प्रयोजन के भी जीवों के वध में किसी प्रकार की ग्लानि अथवा संकोच उन्हें नहीं होता, क्योंकि काम-भोगादि विषयों में बढ़ी हुई आसक्ति के कारण उनके हृदय से दया के भाव एक दम उठ जाते हैं और हृदय दया-शून्य होने से उनके वचन और शरीर भी कठोर हो जाते हैं और उनकी प्रवृत्ति में दयालुता के स्थान पर घातकता आ जाती है। जिसका कि पारलौकिक फल दुख के सिवा और कुछ नहीं है। - इस गाथा में आए हुए 'तस त्रस' शब्द से दो इन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण है और 'थावर-स्थावर' शब्द से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति, इन पांचों का ग्रहण है। तथा—'भूयगामं भूतग्रामः' शब्द का 'भूताः प्राणिनस्तेषां ग्रामः समूहः, इस व्युत्पत्ति के द्वारा 'प्राणि-समूह' अर्थ करना उचित है।
अब फिर इसी विषय को कुछ और स्पष्ट किया जाता है. हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे ।
भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥ ६ ॥
हिंस्रो बालो मृषावादी, मायावी पिशुनः शठः ।
___ भुजानः सुरां मांसं, श्रेय एतदिति मन्यते || ६ || पदार्थान्वयः–हिंसे—हिंसा करने वाला, बाले—मूर्ख, मुसावाई—मृषा अर्थात् झूठ बोलने वाला, माइल्ले—मायावी अर्थात् छल-कपट करने वाला, पिसुणे-चुगली करने वाला, सढे—शठ अर्थात् धूर्त, भुंजमाणे-खाता हुआ, सुरं—मदिरा, मंसं—मांस को, एयं—यह, सेयं श्रेय है, ति—इस प्रकार, मन्नई—मानता है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 205 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं