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साहस करते हैं। अगर वास्तव में देखा जाए तो इस प्रकार के विचार मनुष्य को निस्सन्देह अधोगति में ले जाने वाले हैं। इनका भावी फल नरक की घोर यातनाओं के सिवाय और कुछ नहीं। विष तो केवल इस जन्म में एक ही दफा मारने वाला है, परन्तु विषयरूप विष तो इतना भयंकर है कि वह इस जीव को जन्म-जन्म में मारता रहता है। साधारण जीव अपनी मोहासक्ति के कारण इस रहस्य को नहीं समझ सकते । जो विचारशील व्यक्ति हैं उन्होंने विषयों के परिणाम को अच्छी तरह समझ लिया है, अतएव वे इनके सम्बन्ध को सर्वथा हानि-कारक समझ कर उनसे सदा दूर रहने का ही प्रयत्न करते
यह ठीक है कि ऐसे साधु पुरुष बहुत ही विरले होते हैं। विषयों की स्वभाव-सिद्ध प्रवृत्ति को रोकना कोई साधारण-सी बात नहीं है, इसके लिए अधिक वीर्य-अधिक पराक्रम की आवश्यकता है। इसलिए धर्म के आचरणीय मौलिक सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारने वाले महापुरुषों की संसार में सदा ही न्यून संख्या देखी जाती है और विषयी पामर पुरुषों से तो प्रायः सारा ही संसार भरा पड़ा है, अतः धर्माचरण के विषय में संख्या के आधिक्य को महत्त्व देना भी केवल मूर्खता ही है। लाखों उल्लू मिलकर भी यदि सूर्य के अभाव की घोषणा करें तो क्या वह माननीय हो सकती है? इसी प्रकार लाखों पामर पुरुषों की तीव्र विषयाभिरुचि से धार्मिक जीवन के उच्चतम आदर्श की कभी अवहेलना नहीं हो सकती। इसलिए जो व्यक्ति संसार में विषयी जनों की अधिक संख्या को देखकर उनके निन्दनीय आचरणों का अनुसरण करना ही अधिक आनन्द-प्रद और जीवन का मुख्य सार मानते हैं वे बिल्कुल भ्रांत एवं प्रतिक्षण अधः-पतन की ओर जाने वाले हैं। उनकी यह प्रवृत्ति लोक और परलोक दोनों में ही क्लेश के देने वाली है।
विषयासक्त कामी पुरुषों को इस लोक में जो नाना प्रकार की विडम्बनाएं तथा यातनाएं भोगनी पड़ती हैं उनका अनुभव तो प्रत्यक्ष होने से प्रायः न्यूनाधिक रूप में सभी को है, परन्तु परलोक में विषय-पिपासा-जन्य नरक-सम्बन्धी तीव्र वेदनाओं की तो कल्पना करते हुए भी शरीर कांपने लगता है। अगर सत्य कहा जाए तो सारे पापों का मूल कारण विषय-पिपासा ही है। इसी के निमित्त से काम, क्रोधादि कषायों का उदय होता है और कषायों के उदय होने से मनुष्य अनेक प्रकार के अनर्थ करने में प्रवृत्त हो जाता है तथा अनर्थ की प्रवृत्ति में ही दुख का प्रादुर्भाव होता है, अतएव जो विचारशील व्यक्ति हैं वे इन विषयों का दूर से ही त्याग कर देते हैं। विषय-लोलुप व्यक्तियों की प्रवृत्ति का पुनः वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
तओ से दण्डं समारभई, तसेसु थावरेसु य । अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयगामं विहिंसई || ८ ||
ततः स दण्डं समारभते, त्रसेषु स्थावरेषु च | अर्थाय चानाय, भूतग्रामं विहिनस्ति || ८ ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 204 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
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