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के लिए परलोक की सत्ता तो निर्विवाद है, परन्तु केवल चर्म-चक्षु रखने वाले विषय-लोलुपी पुरुष यदि उसको न देख सकें तो यह उन्हीं का दुर्भाग्य समझना चाहिए।
विषयानुरागी पुरुषों को परलोक के अस्तित्व का ज्ञान हो जाने पर भी वे विषयों से विरक्त नहीं होते, किन्तु अपनी इस जघन्य प्रवृत्ति का येन-केन-उपायेन समर्थन ही करते हैं। निम्नलिखित गाथा में इसी भाव को व्यक्त किया गया है
___ जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगब्भई । . काम-भोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ॥ ७ ॥
जनेन सार्धं भविष्यामि, इति बालः प्रगल्भते ।
काम-भोगानुरागेण, क्लेशं सम्प्रतिपद्यते || ७ || पदार्थान्वयः–जणेण—लोगों के, सद्धिं—साथ, होक्खामि होऊंगा, इइ–इस प्रकार से, बाले—मूर्ख, पगब्भई—बोलता है, कामभोगाणुराएणं-काम-भोग के अनुराग से, केसं—क्लेश को, संपडिवज्जई—प्राप्त होता है।
मूलार्थ मैं भी लोगों के साथ ही होऊंगा, इस प्रकार से अज्ञानी बोलता है और काम-भोग के अनुराग से क्लेश को प्राप्त होता है। ___टीका-परलोक आदि के विषय में. सन्देह रखने या विश्वास न रखने वाले कामभोगासक्त व्यक्ति को यदि किसी प्रकार से परलोक का अस्तित्व मनवा भी दिया जाए, अर्थात् परलोक की स्वीकृति के लिए उसे विवश भी कर दिया जाए तो भी उसकी प्रवृत्ति में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ता, इसके अतिरिक्त बढ़े हुए विषयानुराग के कारण धृष्टता का अवलम्बन करता हुआ और अपनी मूर्खता का परिचय देता हुआ. वह कहने लगता है कि
इस संसार में काम-भोगादि विषयों का निरन्तर सेवन करने वालों और उनसे सर्वथा विरक्त रहने वालों की संख्या का यदि अवलोकन किया जाए तो विषयों के त्यागी व्यक्तियों की संख्या तो अंगुलियों पर गिने जाने लायक भी नहीं, किन्तु विषयानुरागी व्यक्तियों की संख्या लाखों और करोड़ों से भी अधिक है, जबकि लाखों और करोड़ों व्यक्ति इधर ही प्रवृत्त हो रहे हैं तो मुझे भी उन्हीं के साथ रहना चाहिए और जो गति उनकी होगी वही मेरी भी हो जाएगी, क्योंकि मैं भी उनके साथ ही हूं। संसार का प्रत्यक्ष न्याय भी इसी पक्ष का समर्थन करता है, अर्थात् जिस ओर मनुष्यों का समुदाय अधिक हो, वही पक्ष सत्य एवं युक्ति-युक्त माना जाता है तथा सन्देहयुक्त व्यक्ति को भी उधर ही झुकना पड़ता है, इसलिए विषयों से विरक्त रहने वाले इने-गिने व्यक्तियों का साथ देने की अपेक्षा अधिकाधिक संख्या रखने वालों की पंक्ति में ही जाकर बैठना अधिक लाभदायक है।
परन्तु इस प्रकार के विचारों का मूल विषय-भोगों में बढ़ी हुई आसक्ति ही है। इस विषयानुरक्ति के कारण ही वह इस प्रकार के जघन्य और धृष्टतापूर्ण विचारों को प्रस्तुत करने का
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 203 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं ।