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________________ परलोक के विषय में अभी तक सन्देह ही है। कौन जानता है कि परलोक है भी या कि नहीं ! जब कि अभी तक परलोक का निश्चय ही नहीं हुआ तो फिर इन हस्तगत काम भोगों का क्यों त्याग किया जाए ? प्राप्त को छोड़कर अप्राप्त की आशा करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, इसलिए वर्तमान काल में प्राप्त हुए कामादि विषयों में आनन्द मानकर उनमें रमण करना चाहिए । परलोक आदि की कल्पना का कोई मूल्य नहीं है। उसकी सत्ता पर विश्वास करना कोरी भूल है । आज तक परलोक से न तो कोई आया और न ही आज तक उसकी किसी ने खबर दी । यह बात सर्वानुभव सिद्ध है कि प्रतिदिन लाखों प्राणी यहां पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, परन्तु उनमें से आज तक एक भी परलोक से वापिस नहीं आया। यदि परलोक होता तो उसमें से कोई-न-कोई अवश्य वापिस आना चाहिए था, परन्तु आया ही नहीं। इससे प्रतीत होता है कि वास्तव में परलोक है ही नहीं । इसलिए हम अपने आत्मा को सन्देह के गढ़े में धकेलना नहीं चाहते और न ही परलोक के काल्पनिक सुखों के प्रलोभन में पड़ कर यथेष्ट रूप से प्राप्त हुए इन विषय-भोग-जन्य ऐहिक सुखों से वंचित रहना चाहते हैं। विषय-भोगासक्त पुरुषों के इस प्रकार के विचार कहां तक ठीक हैं, इसकी विस्तृत आलोचना तो कहीं प्रसंगवश अन्यत्र की जाएगी, परन्तु यहां पर संक्षेप से इतना विचार कर लेना आवश्यक है कि संसार में जो हम कष्ट देखते हैं, उनका कारण क्या है? मनुष्यों की प्रकृति; मनुष्यों का ऐश्वर्य और उनके सुख-दुख में अन्तर, यह सब कुछ किस आधार को लेकर हैं? यदि इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक कुछ विचार किया जाए तो इस विषमता का मूल कर्मों की विभिन्न - विभिन्न प्रकृतियों में ही निहित है। कर्मों के ऊंचे-नीचे प्रकृति-भेदों में ही इस विश्व की विविधताएं ओतप्रोत हैं। जब यह बात सत्य है तब तो परलोक की सत्ता बिना किसी और प्रयत्न के स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह कि जब वर्तमान समय के जीवों में उपलब्ध होने वाले शारीरिक सौन्दर्य, ऐश्वर्य और सुख-दुख- सम्बन्धी विषमता का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं मिलता और इनका आकस्मिक होना भी प्रमाण सिद्ध नहीं हैं, तब इस विषमता का कोई अज्ञात कारण अवश्य होना चाहिए। वह अज्ञात कारण सिवाय कर्म-प्रकृति के अन्य कोई नहीं हो सकता, अतः सिद्ध हुआ कि संसार की विचित्रता का आधार इस जीव के साथ अनादि प्रवाह से लगे हुए कर्माणु या कर्म - संस्कार हैं। बस इतना कहने अथवा मानते ही परलोक का अस्तित्व अपनी प्रभुता को लिए हुए हमारे सामने आ खड़ा होता है । . अब रही परलोक-दर्शन की बात। उसके लिए तो विवेक-चक्षु, ज्ञान चक्षु या दिव्य चक्षुओं आवश्यकता है। इन चर्म चक्षुओं से उसके दर्शन नहीं हो सकते तथा जो लोग केवल विषय लालसाओं की पूर्ति को ही अपने मानव जीवन के उद्देश्य की इतिश्री समझे बैठे हैं, उनको परलोक की सत्ता के विषय में सन्देह होना कोई आश्चर्य जनक बात नहीं है, क्योंकि अज्ञान के प्रगाढ़ पर्दे ने उनके विवेक-चक्षुओं को बिल्कुल ढांप रखा है। उनकी सारासार - विवेचिनी बुद्धि बिल्कुल कुण्ठित हो चुकी है, परन्तु इससे परलोक के अस्तित्व में कोई क्षति नहीं पहुंच सकती । उल्लू को यदि सूर्य का अस्तित्व स्वीकृत नहीं है तो इससे सूर्य का अभाव कभी नहीं हो सकता। इसी प्रकार दिव्य-ज्ञानचक्षु रखने वालों श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 202 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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