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________________ इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में आए हुए चतुर्थ्यन्त 'कूट' शब्द ( कूडाय — कूटाय) से ग्रहण किए जाने वाले पदार्थ के द्रव्य और भाव को लेकर दो भेद किए गए हैं, जैसे कि — द्रव्य - कूट और भाव-कूट। इसमें जो मांसाहार का लोलुपी होकर पशुओं के वध एवं बंधन का उपाय करता है वह द्रव्य-कूट हैं और मिथ्या - भाषण आदि में प्रवृत्त होना भाव - कूट कहलाता है । जो व्यक्ति काम भोगादि विषयों में अधिक मूर्च्छित है— अधिक आसक्ति रखने वाला है उसमें तो ये दोनों प्रकार के कूट वि करते हैं, क्योंकि उसमें मांसाहार की लोलुपता भी है और विषय - पूर्ति के लिए मिथ्या भाषण भी। इस प्रकार दोनों कूट वहां पर विद्यमान हैं। इस जघन्य प्रवृत्ति का परिणाम जैसा कि ऊपर बताया गया है। नरक ही है। इस सूत्र की दीपिका नामक टीका में लिखा है कि 'कूडाय - कूटाय' यह विभक्ति-विपर्यय से द्वितीया के स्थान में चतुर्थी का प्रयोग किया गया है। कूटाय – 'कूटं गच्छति' कूट उसका नाम है कि जहां पर प्राणी अधिक से अधिक दुख पाते हैं, अर्थात्, नरक-भूमि का नाम कूट है जो कि विषयी, कामी, दुराचारी और पापी पुरुषों से ही अधिकतर भरा पड़ा है। ऊपर मूल तथा व्याख्या में बताए गए काम - भोगासक्त मनुष्य के विचारों को अब निम्नलिखित गाथा के द्वारा और भी स्पष्ट करते हैं हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया । कोजाइ परे लोए अत्थि वा नत्थि वा पुणो ? ॥ ६ ॥ हस्तगता इमे कामाः, कालिका येऽनागताः । को जानाति परो लोकः, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ? ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः—–— हत्थागया— हाथ में आए हुए, इमे― ये, कामा— काम - भोग, जे–जो, अणागया—भविष्य में होने वाले हैं वे, कालिया – सन्देहयुक्त हैं, को–कौन, जाण – जानता है, प लोए – परलोक, अस्थि- है, वा — अथवा, नत्थि — नहीं, वा — परस्पर अर्थ में, पुणो-फिर ( कौन वर्तमान काल में भोगों को छोड़े । ) मूलार्थ — काम - भोग तो इस समय हस्तगत हैं और जो भविष्यत् में मिलने वाले हैं वे संदिग्ध हैं। कौन जानता है कि परलोक है भी अथवा नहीं, तो फिर हाथ में आए हुए भोगों को क्यों छोड़ दिया जाए ? टीका - इस गाथा में कामादि विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखने वाले व्यक्ति के स्वार्थ-साधक विचारों का वर्णन किया गया है। धर्म-पतित विषयी जनों के प्रायः इसी प्रकार के विचार होते हैं जिनका कि इस गाथा में उल्लेख किया गया है। वे कहते हैं कि 'ये प्रत्यक्ष -सिद्ध कामभोगादि विषय तो इस समय हमारे हस्तगत हैं - हमारे स्वाधीन और वशीभूत हो रहे हैं, परन्तु जो भविष्य में— आगामी जन्म में मिलने वाले हैं वे संदेह - युक्त हैं । सम्भव है वे मिलें अथवा न भी मिलें ! क्योंकि / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 201
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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